धर्म

ओशो : ध्यान एक कला

ध्यान भी एक कला है। इस हृदय की गुफा में तो हम किनारे पर तैरना सीख लेते हैं, फिर उस विराट के सागर में उतरने में कोई नहीं रह जाती। यह किनारा है-हमारा हृदय जो है उस विराट के लिए जरा-सा किनारा है। एक तट है, जिस पर बिना खतरे के तैरना सीखा जा सकता है। एक बार यह आ लाए तो ठीक तैरने ही जैसी बात है। जिसे एक दफा तैरना आ जाए पानी में तो आदमी फिर भूलता नहीं है।
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आपने कभी कोई ऐसा आदमी देखा है जो तैरना भूल गया हो? दुनिया में सब चीजे भूली जा सकती हैं, लेकिन कोई आदमी तैरना नही भूलता । यह मजे की बात है। क्योंकि इस तैरने की स्मृति में कुछ भेद है क्या? जब सब चीजे भूल जाती हैं…। अगर पांच साल का मैं था तो जो सब बातें मुझे सिखाई गयी थीं, वह मैं भूल गया, लेकिन तैरना मैं नहीं भूला। चाहे फिर तीस साल तक तैरा ही नहीं, छुआ ही नहीं , पानी में गया ही नहीं। लेकिन तीस साल बाद फेंक दो मुझे पानी में तो मैं फिर तैरने लग जाऊंगा, और उस वक्त ऐसा नहीं होगा कि मुझे याद करना पड़े कि कैसा तैरते थे? बस तैरना आ जाएगा। क्या बात है?
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तैरान स्मृति अगर है, तो और स्मृतियां जब मिट जाती है, तैरना भी मिट जाना चाहिए। जब और स्मृतियां प्रयोग न करने से विस्मृत हो जाना चाहिए। लेकिन तैरना नहीं मिटता, नहीं विस्मृत होता। इसका एक ही अर्थ होता है और वह अर्थ यह है कि तैरना वस्तुत: हम सीखते नहीं। क्योंकि जो भी चीज सीखी जाए, वह भूल जाती है। लेकिन बात अजीब लगेगी, क्योंकि तैरना हम सीखते तो हैं। तब फिर ऐसा समझें कि तैरने में हम शायद तैरना नहीं सिखते ,केवल साहस सीखते है।
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