धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—238

एक बार एक युवक घर बार छोड़कर सन्यासी बनने निकला। वह समझ चुका था की, जीवन में कोई अपना नहीं है। अपने भी मतलब के ही है। उसने सोचा, “अब केवल ईश्वर का सहारा है”। यही सोच वह घर से निकल पड़ा। बनारस में गंगा किनारे बहुत से छोटे बड़े साधुओं के आश्रम थे। वही एक आश्रम में रहने लगा। भगवान के प्रति उसका विश्वास अटूट था।

जब भी कोई उसे उसके दुख के बारे में या उसकी गलतियों के बारे में कुछ कहता, तो वह तुरंत बता देता की, “गंगा मईया के जल में डुबकी लगाने से 108 यज्ञों का फल मिलता है और सारे पाप भी धुल जाते हैं”। “राम नाम जपने से सारे पाप धुल जाते हैं, सारे कष्ट मिट जाते हैं”। “भोले बाबा है ना! मेरी नैया पार लगा देंगे”।

इतनी श्रद्धा भक्ति के बाद भी वह अभी सन्यासी बनने के लिए परिपक्व नहीं था। उसे आज भी इंद्रिय आसक्ति थी। बनारस में उसका कोई घर परिवार तो था नहीं। उसने इंद्रियों पर विजय भी प्राप्त नहीं की थी। जब भी उसे इंद्रिय आसक्ति सताती, वह वैश्या गमन करता। वैश्या गमन के उपरांत गंगा मईया के जल में डुबकी लगा लेता। धीरे-धीरे उसके आश्रम में तथा बगल के आश्रमों में भी उसकी चर्चा होने लगी। एक दिन एक परिपक्व सन्यासी ने उसे युवक के हित में उससे कहा की, भाई! या तो तुम अपने सांसारिक जीवन में लौट जाओ या नहीं तो अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करो। तुम प्रतिदिन गंगा मईया में डुबकी लगाते हो। फिर वैश्या गमन जैसे पाप कर्म करते हो। इससे क्या लाभ?”

आगे उन सन्यासी ने कहा, “तुम्हारे जप अग्निहोत्र के सारे पुण्य क्षण भर में शून्य हो जाते हैं। ना तुम्हें अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त हो रही है। ना तुम अपनी आत्मा को मलिन होने से रोक पा रहे हो। ऐसे सन्यास आश्रम का क्या लाभ?” इस पर वह युवक कहता है, अरे भाई जी! आपको नहीं पता? गंगा मईया के जल में डुबकी लगाने से 108 यज्ञों का फल मिलता है और सारे पाप भी धूल जाते हैं। मैं तो केवल एक ही पाप करता हूं। वहीं मैं प्रतिदिन गंगा मईया में दो बार डुबकी लगाता हूं। फिर मैं पापी कहां से हुआ?” यह कह कर हंसता हुआ चला गया। अपने वरिष्ठ सन्यासी की बात भी पूरी नही होने दी।

एक दिन की बात है। वह गंगा मईया की तट पर डुबकी लगाने पहुंचा। वहां एक बारह तेरह वर्ष की बालिका वस्त्र धो रही थी। उसे देख उस युवक ने सोचा, “यह बालिका चली जाए तब मैं नहाउंगा”। परंतु वह बालिका जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। तब उस युवक ने उस बालिका देखना चाहा कि, आखिर वह कर क्या रही है? जब उस युवक ने बालिका को देखा तो चिढ़ गया। वह बालिका एक सफेद वस्त्र को रगड़ रगड़कर साफ कर रही थी। ज्यों ही वह वस्त्र साफ हो जाता, उसे तट पर जमे चिकनी मिट्टी के कीचड़ में रगड़ती। जिससे वस्त्र पुनः गंदा हो जाता। फिर उस गंदे वस्त्र को गंगा मईया के जल में डालकर रगड़ रगड़कर साफ करती।

कुछ देर तक तो युवक ने सब्र बांधा। कुछ समय पश्चात युवक ने क्रोध में आकर कहा, “मूर्ख बालिका! यह क्या कर रही हो? समय और सामर्थ्य दोनों ही नष्ट कर रही हो। यदि इस कपड़े को गंदा ही करना है तो साफ क्यों करती हो और यदि इसे साफ ही करना है तो पुनः कीचड़ में क्यों डालकर रगड़ती हो?” यह सुनते ही वह बालिका एक स्त्री में परिवर्तित हो गई। फिर क्रोध से भरी उन महिला ने जोर से बोला, “अरे मूर्ख! यही तो मैं तुझे समझ रही हूं कि, तू अपना समय और सामर्थ्य दोनों नष्ट कर रहा है। यदि तुझे पाप कर्म ही करने हैं तो आकर मेरे स्वच्छ जल में उन्हें धोता क्यों है? यदि मेरे स्वच्छ जल में सारे पाप कर्म धो देता है तो फिर पुनः जाकर पाप कर्म करता क्यों है?

युवक सीधा माता गंगा के चरणों में गिर पड़ा। रोता हुआ बोला, “माता! मुझसे गलती हो गई। मुझे क्षमा कर दो। अब मैं जिस पाप को धो दूंगा उसे पुनः नहीं दोहराऊंगा।” फिर माता ने उसे सही रास्ते पर लाने के लिए कहा और अंतर्ध्यान हो गईं।

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