कबीर अपने स्टिक दोहों और पैनी साखियों के कारण धीरे-धीरे सिद्धपुरुष के रूप में ख्याति पाने लगे थे। वे जुलाहे का काम करते थे। सत्य को सीधे, सपाट ढंग से कह देना और वह भी निर्भीकता के साथ, यह कबीर ही थे, जिनका इतना साहस था। इसलिए आम जनता के लिए वे श्रद्धा का केंद्र बन चुके थे।
इतनी प्रसिद्धि पाने के बाद भी कबीर ने अपना पैतृक व्यवसाय नहीं छोड़ा। वे प्रतिदिन कपड़ा बुनते थे और साथ-साथ जनसंपर्क व भजनादि का कार्य भी करते रहते थे। कबीर के कुछ शिष्यों को यह ठीक नहीं लगता था। अतः एक दिन उनमें से एक ने कबीर से पूछा – गुरुदेव! जब आप साधारण मनुष्य थे, तब कपड़ा बुनते थे, तो ठीक बात थी। किन्तु अब आप इतने विख्यात हो गए हैं। जीवन निर्वाह में भी कोई कमी नहीं है, फिर भी आप कपड़ा क्यों बुनते हैं? आपको यह शोभा नहीं देता।
उसकी बात सुनकर कबीर मुस्कुराते हुए सहजता से बोले – बेटा पहले मैं मात्र अपने पेट का पालन करने के लिए कपड़ा बनता था, किन्तु अब मैं जन-जन मैं समाए हुए भगवान के तन को ढ़कने के लिए पूर्ण मनोयोग से कपड़ा बनता हूँ। कार्य वही कर रहा हूँ, किन्तु मेरा दृष्टिकोण बदल गया है। शिष्य ने भी श्रद्धा पूर्वक सहमति जताई।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, स्वहित में कार्य करना स्वधर्म है, किन्तु जब कार्य का लक्ष्य समाज हित हो जाए तो वह परम धर्म कहलाता है और इस धर्म का पालन करने वाला परमयोगी हो जाता है।