एक दिन गौतम बुद्ध अपने आश्रम में टहल रहे थे। चारों ओर शांति थी, लेकिन तभी उनकी दृष्टि एक कोने में पड़ी, जहां एक भिक्षु असहाय अवस्था में तड़प रहा था। उसे डायरिया हो गया था, इस कारण उसका शरीर अत्यंत कमजोर हो चुका था, उसके लिए सांस लेना भी कठिन हो रहा था। बीमारी की वजह से उसके आसपास गंदगी भी हो गई थी। वह अकेला था और कोई उसकी देखभाल करने वाला नहीं था।
बुद्ध ने तुरंत अपने प्रिय शिष्य आनंद को बुलाया और कहा कि आनंद, शीघ्र कुछ औषधियां लेकर आओ, हमें इसका उपचार करना होगा।
इसके बाद बुद्ध स्वयं उस बीमार भिक्षु के पहुंचे और बिना किसी संकोच के उन्होंने उसे सहारा दिया और उसके आसपास फैली गंदगी को साफ करने लगे। बुद्ध के स्वभाव में न घृणा थी, न ही अहंकार था, उनके मन में केवल सेवा भाव था।
आनंद बीमार भिक्षु के लिए औषधियां ले आए। बुद्ध ने स्वयं उस बीमार व्यक्ति को औषधियां दीं। पानी पिलाया। औषधियों के असर से थोड़ी देर में भिक्षु को राहत मिलने लगी।
ये दृश्य देखकर आश्रम के अन्य भिक्षु वहां इकट्ठा हो गए। वे चुपचाप ये सब देख रहे थे। अंततः उनमें से एक ने पूछा कि तथागत, आपने स्वयं गंदगी क्यों साफ की?
बुद्ध ने शांत स्वर में कहा कि आप मुझसे प्रश्न मत करो। मैं तुम सबसे ये पूछना चाहता हूं कि तुम लोगों ने अपने ही आश्रम के इस बीमार भिक्षु की सेवा क्यों नहीं की? तुम जानते थे कि ये अकेला है। यहां न कोई रिश्तेदार आता है, न कोई अपना। इस आश्रम में हम सभी एक-दूसरे के मित्र और परिवार हैं, फिर भी आप सभी ने इसे अकेला छोड़ दिया।
बुद्ध की बातों का भिक्षुओं के पास कोई उत्तर नहीं था। सभी लज्जित होकर मौन खड़े रह गए। तब बुद्ध ने कहा कि याद रखें, बीमारी किसी को भी हो सकती है। जब तुम किसी बीमार की सेवा करते हो, तो वह सेवा सीधे परमात्मा तक पहुंचती है। करुणा और सेवा ही सच्चा धर्म है। इसलिए किसी बीमार की सेवा करने में संकोच न करें।
उस दिन सभी भिक्षुओं ने ये समझा कि सच्चा ज्ञान केवल उपदेशों में नहीं, बल्कि व्यवहार और करुणा में छिपा है।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जीवन में शांति पाने के लिए केवल लक्ष्य और पैसा ही काफी नहीं, बल्कि संवेदनशील हृदय भी जरूरी है। आसपास किसी के दुख को देखकर अनदेखा करना हमारे व्यक्तित्व को कमजोर बनाता है। दूसरों के दुख के लिए भी संवेदनशील रहें।








