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सत्यार्थप्रकाश के अंश—48

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देवताओं के अधीन सब जगत्,मन्त्रों के अधीन सब देवता और वे मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं इसलिये ब्राह्मण देवता कहाते हैं। क्योंकि चाहैं जिस देवता को मन्त्र के बल से बुला, प्रसन्न कर, काम सिद्ध कराने को हमारा ही अधिकार है। जो हम में मन्त्रशक्ति न होती तो तुम्हारे से नास्तिक हम का संसार में रहने ही न देते।
जो चोर, डाकू,ककर्मी लोग हैं वे भी तुम्हारे देवाताओं के अधीन होंगे? देवता उन से दुष्ट काम कराते होंगे? जो वैसा है तो तुम्हारे देवता और राक्षसों में कुछ भेद न रहेगा। जो तुम्हारे अधीन मन्त्र हैं उन से तुम चाहो सो करा सकते हो तो उन मन्त्रों से देवताओं को वश कर, राजाओं के कोष उठवा कर अपने घर में भरकर बैठ के आनन्द क्यों नहीं भोगते? घर-घर में शनैश्चरादि के तैल आदि का छायादान लेने को मारे-मारे क्यों फिरते हो? और जिस को तुम कुबेर मानते हो उस को वश करके चाहो जितना धन लिया करो। बिचारे गरीबों को क्यों लूटते हों?
तुम को दान देने से ग्रह प्रसन्न और न देने से अप्रसन्न होते हों तो हम सूय्र्यादि ग्रहों की प्रसन्नता अप्रसन्नता प्रत्यक्ष दिखलाओं। जिस को सूर्य चन्द्र और दूसरे को तीसरा हो उन दोनों को ज्येष्ठ महीने में बिना जूते पहिने तपी हुई भुमि पर चलाओ। जिस पर प्रसन्न है उन के पग, शरीर न जलने और जिस पर क्रोधित हैं उन के जल जाने चाहिये तथा पौष मास में दोनों को नंगे कर पौर्णमासी की रात्रि भर मैदान में रखे। एक को शीत लगे दूसरे को नहीं तो जानो कि ग्रह कू्रर और सौम्य दृष्टि वाले होते हैं।
और क्या तुम्हारे ग्रह सम्बन्धी हैं? और तुमहारी डाक वा तार उन के पास आता जाता हैं? अथवा तुम उन के वा वे तुम्हारे पास आते जाते हैं? जो तुम में मन्त्रशक्ति हो तो तुम स्वयं राजा वा धनाढ्य क्यों नहीं बन जाओ? वा शत्रुओं को अपने वश में क्यों नहीं कर लेते हो?
नास्तिक वह होता है जो वेद ईश्वर की आज्ञा वेदविरूद्ध पोपलीन चलावे। जब तुम को ग्रहदान न देवे जिस पर ग्रह है वही ग्रहदान को भोगे तो क्या चिन्ता हैं? जो तुम कहो कि नहीं हम ही को देने से वे प्रसन्न होते हैं अन्य को देने से नहीं तो क्या तुम ने ग्रहों का ठेका ले लिया हैं? जो ठेका लिया हो तो सूय्र्यादि को अपने घर में बुला के जल मरो।
सच तो यह है कि सूय्र्यादि लोक जड़ हैं। वे न किसी को दु:ख और न सुख देने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु जितने तुम ग्रहदानोपजीवी हो वे सब तुम ग्रहों की मूत्र्तियां हो क्योंकि ग्रह शब्द का अर्थ भी तुम में ही घटित होता है। ये ग्रöन्ति ते ग्रहा:, जो ग्रहण करते है उन का नाम ग्रह है। जब तक तुम्हारे चरण राजा,रईस सेठ साहूकार और दरिद्रों के पास नहीं पहुंचते तबतक किसी को नवग्रह का स्मरण भी नहीं होता। जब तुम साक्षात् सूर्य शनैश्चरादि मूर्तिमान् कू्रर रूप धर उन पर चढ़ाते हो तब बिना ग्रहण किये उन को कभी नहीं छोड़ते और जो कोई तुम्हारे ग्रास में न आवे उन की निन्दा नास्तिकादि शब्दों से करते फिरते हो।
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Jeewan Aadhar Editor Desk