वेद के विरोधी और उलटे चलते हैं तथा तन्त्र भी वैसे ही हैं। जैंसे कोई मनुष्य एक का मित्र सब संसार का शत्रु हो, वैसा ही पुराण और तन्त्र का मानने वाला पुरूष होता हैं क्योंकि दूसरे से विरोध कराने वाले ये ग्रन्थ हैं। इन का मानना किसी विद्वान् का काम नहीं किन्तुु इन का मानना अविद्वत्ता हैं।
देखों शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार,आदित्यपुराण में रवि, चन्द्रखण्ड में सोमग्रह वाले मंगल,बुध,बृहस्पति,शुक्र,शैनश्चर, राहु,केतु के, वैष्णव दकादशी,वामन की द्वादशी, नृसिंह वा अनन्त की चतुर्दशी ,चन्द्रमा की पौर्णमासी, दिक्पालों की दशमी,दुर्गा की नौमी, वसुओं की अष्टमी, मुनियों की सप्तमी, कार्तिक स्वामी की षष्ठी, नाग की पञ्चमी,गणेश की चतुर्थी, गौरी की तृतीया, अश्विनीकुमार की द्वितीया, आद्यादेवी की प्रतिपदा और पितरों की अमावस्या पुराणरीति से ये दिन उपवास करने के हैं। और सर्वत्र यही लिखा हैं कि जो मनुष्स इन वार और तिथियों में अन्न,पान ग्रहण करेगा वह नरकगामी होगा।
अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिये कि किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन न करें क्योंकि भोजन वा पान किया नरकगामी होंगे। अब निर्णयसिन्धु, धर्म सिन्धु व्रतार्क आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं उन्हीं में एक-एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी को शैव,दशमी विद्धा,कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वाद विवाद ही करते हैं। जो एकादशी का व्रत चलाया है उस में अपना स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं।
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