धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—448

एक ब्राह्मण के हृदय में यज्ञ करने का विचार आया, किंतु उसके पास इसके लिए पर्याप्त धन नहीं था। इसलिए उसने अनेक देवताओं की पूजा की, किंतु बात नहीं बनी। अंततः उसने विचार किया कि मैं उस देवता की उपासना करूंगा, जो मुझ पर प्रसन्‍न होकर धन दे दे।

उसने आकाश में कुंडाधार नामक मेघ के देवता की आराधना आरंभ की। वे प्रसन्‍न हुए, किंतु मेघों के देवता होने के कारण जल के सिवाय कुछ भी देने में असमर्थ थे। अतः कुंडाधार मणिभद्र के पास पहुंचे और बोले- “मैं अपने उपासक ब्राह्मण को सुख देना चाहता हूं।

मणिभद्र ने कहा- “तुम्हारे भक्त ब्राह्मण को मैं अपार धन दे देता हूं। किंतु कुंडाधार ने उनसे उसे धन देने के बजाय धर्म की ओर प्रेरित करने का आग्रह किया। इसके बाद मणिभद्र ने ब्राह्मण की बुद्धि को धन की लालसा से हटाकर धर्म की तरफ मोड़ने का काम किया।

मणिभद्र की कृपा से ब्राह्मण की बुद्धि धर्म की ओर उन्मुख हो गई। ब्राह्मण वन में जाकर कठोर तपस्या करने लगा और उसने दिव्य सिद्धियां प्राप्त कर ली। एक दिन कुंडाधार ने उसे दर्शन देकर कहा- तुम पहले धन की इच्छा से उपासना करते थे। अब तपस्या के प्रभाव से तुम स्वयं इतने सशक्त हो गए हो कि वरदान देकर किसी को भी धनवान बना सकते हो।

क्या तुम्हारी कोई कामना शेष है? ब्राह्मण ने हाथ जोड़कर कहा- मैं ईश्वर की कृपा से प्रसन्‍न व संतुष्ट हूं। मणिभद्र और आपने धन के स्थान पर धर्म की ओर प्रेरित कर मुझे सिखाया हे कि धन महत्त्वपूर्ण है, किंतु धर्म का मार्ग उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण व श्रेष्ठ है।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, वास्तव में धन और धर्म के चयन में धर्म ही श्रेष्ठ होता है, क्योंकि धर्म स्थायी रूप से साथ रहता है, जबकि धन अस्थायी होता है।

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