धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश—56

जहां जो बात सुनी जाती है वही सच्ची होगी कि कोई जुलाहा काशी में रहता था। उसके लडक़े बालक नहीं थे। एक समय थोड़ी सी रात्रि थी। एक गली में चला जाता था तो देखा सडक़ के किनारे में एक टोकनी में फूलों के बीच में उसी राम का जन्मा हुआ बालक था। वह उस को उठा ले गया। अपनी स्त्री को दिया। उसने पालन किया।

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जब वह बड़ा हुआ तो जुलाहे का काम करता था। किसी पण्डित के पास संस्कृत पढऩे के लिए गया। उस ने उस का अपमान किया। कहा कि हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कइ पण्डितों के पास फिरा परन्तु किसी ने न पढ़ाया। तब ऊटपटांग भाषा बनाकर जुलाहे आदि नीच लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता, भजन गाता था। विशेष पण्डित,शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उस के जाल में फंस गए। जब मर गया लोगों ने उस को सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था उस को उस के चेले पढ़ते रहे। कान को मूंद के जो शब्द सुना जाता है उस का अनहद शब्द सिद्धान्त ठहराया।

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मन की वृत्ति को सुरति कहते हैं। उस को उस शब्द सुनने में लगाना उसी को सन्त और परमेश्वर का ध्यान बतलाते हैं। वहां काल नहीं पहुंचता। बर्छी के समान तिलक और चन्दनादि लकड़े की कण्ठी बांधते हैं। भला विचार देखो कि इस में आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता हैं? यह केवल लडक़ों के खेल समान लीला हैं।
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