श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता सांदीपनि आश्रम में शुरू हुई थी, उस समय श्रीकृष्ण और बलराम उज्जैन स्थित सांदीपनि आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। वर्षों बाद जब सुदामा निर्धनता में जी रहे थे, तब उनकी पत्नी ने उन्हें श्रीकृष्ण से सहायता मांगने भेजा। लेकिन सुदामा किसी भी सूरत में श्रीकृष्ण से कुछ मांगना नहीं चाहते थे। लेकन पत्नी की जिद्द के चलते वो चार मुठ्ठी चावल उपचार स्वरुप लेकर श्रीकृष्ण से मिलने चल पड़े।
द्वारका पहुंचने पर श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया, उन्हें गले लगाया और उनके पैर धोए। सुदामा ने उपहार के रूप में कच्चा चावल भेंट किया, जिसे कृष्ण ने अत्यंत प्रेम से ग्रहण किया। इसके बाद ना सुदामा ने श्रीकृष्ण से अपनी गरीबी के बारे में बात की और ना ही किसी प्रकार की सहायता मांगी।
लेकिन बिना किसी मांग के श्रीकृष्ण ने अपने मित्र का पूरा हाल जान लिया। सुदामा को बिना कुछ कहे और बिना कुछ बताएं श्रीकृष्ण ने उनके जीवन की सभी समस्याएं समाप्त कर दीं। यह है श्रीकृष्ण की सच्ची मित्रता की श्रेष्ठ शिक्षा। जहां मांगने से पहले ही मित्र की सभी जरुरत को पूरा कर दिया गया।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, सच्ची मित्रता स्थिति या हैसियत पर आधारित नहीं होती, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव पर आधारित होती है। मित्र के उपकारों को नहीं भूलना चाहिए, चाहे वे कितने भी छोटे क्यों न हों। निःस्वार्थ भाव से सहायता करना ही मित्रता का सच्चा रूप है। पुराने मित्रों से जुड़ाव बनाए रखें, भले ही समय या परिस्थितियां बदल गई हों। मित्र की मदद करने से पहले यह न सोचें कि बदले में क्या मिलेगा।