धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—33

एक शहर में एक धनी सेठ रहता था । उसके पास बहुत ज्यादा धन -दौलत थी, परन्तु इतना धनी होने पर भी वह हमेशा दुखी रहता था । एक दिन वह बहुत परेशान था और वो एक साधू के पास गया और साधू के पास पहुंचते ही उसने अपनी सारी परेशानी उस साधू को बताई । साधू ने सेठ की बात को ध्यान से सुना और उसे कल इसी समय उसके पास आने के लिए कहा।

यह सुनकर सेठ बहुत खुश हो गया और घर चला गया । अगले दिन वो उस साधू के पास गया और उसने देखा के साधू सड़क पर कुछ ढूँढने में व्यस्थ था ।सेठ ने साधू से पुछा गुरु जी! आप क्या ढूंढ़ रहे हो?? साधू बोला,मेरी हाथ की अंगूठी गिर गई है.. वहीँ ढूंढ़ रहा हूँ ।पर अंगूठी मिल ही नहीं रही है।

अब सेठ भी उस अंगूठी को ढूंढ़ने लगा । जब काफी देर तक अंगूठी नही मिली तो सेठ ने आखिर साधू से पूछ ही लिया गुरु जी आपकी अंगूठी गिरी कहां थी । साधू ने जवाब दिया, अंगूठी मेरी कुटिया में गिरी थी वहां काफी अंधेरा था, इसीलिए मैं यहां पर ढूंढ़ रहा हूं । सेठ उस साधू के उत्तर से चौंक गया। उसने साधू से कहा, महाराज! अगर आपकी अंगूठी कुटिया में गिरी है, तो आप यहां क्यों ढूंढ़ रहे हो । साधू ने मुस्कराते हुए कहा, यह तुम्हारे कल के प्रश्न का उत्तर है। ख़ुशी तो मन में छुपी होती है और तुम धन में ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हो । यही तुम्हारी समस्या का कारण है । तुम हर चीज़ को धन में ढूंढ़ने की कोशिश करते हो । जबकि खुशी धन से नहीं खरीदी जा सकती। वह मन होती है और उसे वहीं से खोजना पड़ता है।

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