एक बार एक संत श्री राजदरबार में गये और इधर-उधर देखने लगे। मंत्री ने आकर संत श्री से कहा : “हे साधो! यह राजदरबार है। आप देखते नहीं कि सामने राजसिंहासन पर राजा जी विराजमान हैं ? उन्हें झुककर प्रणाम कीजिये।”
संत श्री ने उत्तर दिया : “अरे मंत्री ! तू राजा से पूछकर आ कि आप मन के दास हैं या मन आपका दास है?” मंत्री ने राजा के समीप जाकर उसी प्रकार पूछा। राजा लज्जा गया और बोला : “मंत्री! आप यह क्या पूछ रहे हैं ? सभी मनुष्य मन के दास हैं। मन जैसा कहता है वैसा ही मैं करता हूँ।”
मंत्री ने राजा का यह उत्तर संतश्री से कहा। वे यह सुनकर बड़े जोर से हँस पड़े और बोले: “सुना मंत्री! तेरा राजा मन का दास है और मन मेरा दास है, इसलिये तेरा राजा मेरे दास का दास हुआ। मैं उसे झुककर किस प्रकार प्रणाम करुँ? तेरा राजा राजा नहीं, पराधीन है। घोड़ा सवार के आधीन होने के बदले यदि सवार घोड़े के आधीन है तो घोड़ा सवार को ऐसी खाई में डालता है कि जहाँ से निकलना भारी पड़ जाता है।”
संतश्री के कथन में गहरा अनुभव था। राजा के कल्याण की सद्भावना थी। हृदय की गहराई में सत्यता थी। अहंकार नहीं किन्तु स्वानुभूति की स्नेहपूर्ण टंकार थी। राजा पर उन जीवन्मुक्त महात्मा के सान्निध्य, वाणी और द्रुष्टि का दिव्य प्रभाव पड़ा।
संतश्री के ये शब्द सुनकर राजा सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। आकर उनके पैरों में पड़ा। संतश्री ने राजा को उपदेश दिया और मानव देह का मूल्य समझाते उसे लोककल्याण में निर्णय करने वाला राजा बनाया।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, मन के दास बनने पर ही दु:ख आता है। जिस दिन मन पर विजय प्राप्त कर ली, उस दिन जीवन से दु:ख समाप्त हो जाते हैं। इसलिए सदा मन को काबू में रखने का प्रयास करना चाहिए।