एक बार किसी साधु महात्मा को राह चलते एक आदमी ने गालियाँ दी। उस महात्मा ने बिना परेशान हुए उन बातों को तब तक सुना जब तक वह आदमी बोलते-बोलते थक न गया।
तब उन्होंने उस आदमी ने पूछा अगर किसी की दी हुई चीज़ न ली जाये तो वह चीज़ किसके पास रहेगी? आदमी ने जवाब दिया कि चीज देने वाले के पास ही रह जाएगी।
महात्मा ने कहा, मैं तुम्हारी इस देन को लेने से इंकार करता हूँ और वह उस आदमी को हक्का-बक्का और हैरान हो गया। उसे अपने गलती का अहसास हुआ तो उसने साधु के पैर पकड़कर क्षमा मांगी।
धर्म प्रेमी सुंदरसाथ जी, बगैर इजाजत के कोई आपको हीन महसूस नहीं करा सकता। उस महात्मा का खुद पर अंदरूदी कण्ट्रोल था। इसके चलते उसने आदमी की गालियों का जवाब नहीं दिया। जिससे आदमी की गालियां महत्वहीन हो गई। साधु के इस व्यवहार से आदमी को ही वापिस लज्जित होना पड़ा।