एक दिन, राजा हरिश्चंद्र अपने राज्य में घूम रहे थे। जब उन्होंने एक ऋषि को तपस्या करते देखा। ऋषि विश्वामित्र ने उनकी तपस्या भंग करने पर राजा को शाप दिया। राजा ने उनसे क्षमा माँगी और अपनी भूल का प्रायश्चित करने के लिए अपनी सारी संपत्ति और राज्य दान करने का वचन दिया।
राजा हरिश्चंद्र ने अपने वचन के अनुसार, अपना सारा राज्य और धन ऋषि विश्वामित्र को सौंप दिया। अपनी पत्नी तारा और पुत्र रोहिताश्व के साथ उन्होंने राज्य छोड़ दिया और एक नया जीवन शुरू किया। अब उनके पास कुछ भी नहीं बचा था।
हरिश्चंद्र और उनके परिवार ने बहुत कठिनाइयों का सामना किया। एक समय ऐसा आया जब जीविका चलाने के लिए उन्हें काशी के श्मशान घाट पर काम करना पड़ा। राजा हरिश्चंद्र वहां शवों का अंतिम संस्कार कराने का कार्य करने लगे। उन्होंने यह काम भी पूरी निष्ठा और ईमानदारी से किया।
उसी समय, उनकी पत्नी तारा और पुत्र रोहिताश जंगल में जीवन यापन करने लगे। एक दिन, एक सांप के काटने से रोहिताश्व की मृत्यु हो गई। तारा अपने पुत्र के शव को लेकर श्मशान घाट पर पहुँची। श्मशान घाट पर हरिश्चंद्र ही ड्यूटी पर थे। अपने ही पुत्र के शव को देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया, लेकिन उन्होंने अपने कर्तव्य और सत्य के मार्ग पर डटे रहते हुए अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया।
तारा ने हरिश्चंद्र से रोहिताश्व के अंतिम संस्कार के लिए मदद मांगी। हरिश्चंद्र ने कहा, “मैं यहाँ अपना काम करने के लिए हूँ और मुझे अपने काम का कर्तव्य निभाना है।” उन्होंने तारा से अंतिम संस्कार के लिए शुल्क की माँग की। तारा के पास कुछ भी नहीं था, इसलिए उसने अपनी साड़ी का एक हिस्सा शुल्क के रूप में देने का प्रस्ताव रखा।
हरिश्चंद्र ने इसे स्वीकार कर लिया और अपने पुत्र का अंतिम संस्कार स्वयं ही किया। उनकी यह सत्यनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता देखकर देवता भी प्रभावित हुए।
हरिश्चंद्र के सत्य, धर्म और त्याग की परीक्षा के बाद, विश्वामित्र और अन्य देवताओं ने प्रकट होकर उनके धैर्य और निष्ठा की सराहना की। उन्होंने हरिश्चंद्र से कहा, “तुमने सत्य और धर्म के मार्ग पर अडिग रहते हुए अपनी सभी कठिनाइयों का सामना किया है। यह एक महान उदाहरण है।”
देवताओं ने उन्हें और उनके परिवार को पुनः अपने राज्य में लौटने का आदेश दिया और उनकी सारी संपत्ति और वैभव को पुनः स्थापित किया। हरिश्चंद्र, तारा और रोहिताश के जीवन को पुनः सामान्य बना दिया गया।
हरिश्चंद्र अपने राज्य में वापस आए और पुनः न्याय और सत्य के मार्ग पर चलते हुए अपनी प्रजा का भला करने लगे। उनकी इस सत्यनिष्ठा और धर्मपरायणता ने उन्हें अजर-अमर कर दिया।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, सत्य और धर्म के मार्ग पर चलते हुए, चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएँ, हमें अपने सिद्धांतों से डिगना नहीं चाहिए। सत्य की राह पर चलना कठिन होता है, लेकिन अंततः सच्चाई की ही जीत होती है।