भगवान श्रीकृष्ण ने कभी भी अपने सहयोगियों को स्वयं के राजा होने का आभास नहीं होने दिया। वे सदा काफी सरल रहते थे। उन्होंने कई लोगों से काम करवाया लेकिन मैनेजर या बॉस बनकर नहीं। भगवान श्रीकृष्ण की बात हर कोई मानता था क्योंकि वे किसी के बॉस नहीं थे और ना ही वे तानाशाह थे। वे जब द्वारिका में राजा थे तो उन्होंने कभी राजा जैसा व्यवहार नहीं किया। वे तो लोगों के मित्र, सलाहकार और सहयोगी थे। उन्होंने कभी भी अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया।
हजारों गायों के मालिक होते हुए भी उन्होंने गोपियां का मक्खन खाया। हस्तिनापुर गए तो दुर्योधन के मेवे—पकवान का त्याग करके विधुर के घर गए और वहां प्रेम से केले के छिलके खाएं। सुदामा जब उनके पास आया तो उसकी मैली, फटी—पुरानी पोटली में बंधे कच्चे चावल खाएं। द्रोपदी के घर हांड़ी में चिपका एक छिलका खाकर भी वे संतुष्ठ हुए। उन्होंने कभी भी अपने चेहते, मित्रों और सहयोगियों को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे सुपर पावर है। वे बॉस है। वे राजा है। उन्होंने सदा उनके साथ मित्रवत व्यवहार किया। श्रीकृष्ण ने अपने सहयोगियों को गरीब या दीन होने का अहसास नहीं होने दिया।
महाभारत के युद्ध में वे अर्जुन के सारथी बन गए। अर्जुन का रथ हांकते रहे। उन्होंने कभी भी स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास नहीं किया। कौरवों की विशाल सेना और उस वक्त के सभी महान योद्धाओं का पांडवों के विरुद्ध रण में खड़े होने पर भी श्रीकृष्ण की सलाह और मार्गदर्शन से पांडवों के हौंसले कभी कम नहीं हुए। श्रीकृष्ण ने महाभारत में ऐसा टीम वर्क किया कि कमजोर होते हुए भी पांडव जीत गए।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, श्रीकृष्ण की जीवनशैली से शिक्षा लेकर मैनेजर या बॉस को अपने यहां काम करने वाले लोगों को महज कर्मचारी न समझते हुए उन्हें अपना सहयोगी समझना चाहिए। प्रत्येक के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। छोटे—बड़े का भेदभाव नहीं रखना चाहिए। ऐसा व्यवहार करने वाला मैनेजर और बॉस की कम्पनी सदा तरक्की, प्रगति और ऊंचाइयों को प्राप्त करेगी।