धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 442

बात सिद्धार्थ के जीवन के उस दौर की है, जब वे बुद्धत्व को प्राप्त नहीं हुए थे और निरंजना नदी के तटीय वनों में वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे। सिद्धार्थ प्रतिदिन ध्यान करने के बाद पास के किसी गावं में चले जाते और भिक्षा मांगकर लौट आते। कुछ दिनों बाद उन्होंने भिक्षाटन पर भी जाना बंद कर दिया, क्योंकि एक गांव के प्रधान की छोटी बेटी सुजाता उनके लिए नित्य भोजन लाने लगी।

कुछ दिनों के बाद उसी गावं का एक चरवाहा भी सिद्धार्थ से प्रभावित होकर उनके पास आने लगा। उसका नाम स्वस्ति था। एक दिन स्वस्ति से सिद्धार्थ बातें कर रहे थे कि सुजाता भोजन लेकर आई। जैसे ही सिद्धार्थ ने भोजन करना शुरू किया, उन्होंने बातचीत बंद कर दी। स्वस्ति ने बात करने की कोशिश की तो सिद्धार्थ ने इशारे से उसे चुप करा दिया।

जितनी देर तक वे भोजन करते रहे, बिल्कुल चुप रहे। स्वस्ति को हैरानी हुई। उसने सिद्धार्थ से भोजन करने के उपरांत पूछा – गुरुदेव! आप मेरे आने के बाद निरंतर वार्तालाप करते रहे, किन्तु भोजन के दौरान एक शब्द भी नहीं बोले। मैं तो भोजन करते-करते भी बातें कर लेता हूँ।आप ने तो मुझे भी इशारे से चुप करा दिया। इसका क्या कारण है?

सिद्धार्थ बोले- भोजन का निर्माण बड़ी कठिनाई से होता है। किसान पहले बीज बोता है, फिर पौधों की रखवाली करता है और तब कहीं जाकर पैदा होता है। फिर घर की महिलाएं बड़े जतन से उसे खाने योग्य बनाती हैं। इतनी कठिनाई से तैयार भोजन का पूरा आनंद तभी संभव है, जब हम पूर्णतः मौन हों। यदि हम भोजन को पूर्ण शांति से मौन रहकर अच्छी तरह से चबा-चबा कर खाएंगे तो यह आसानी से पचेगा जिससे पेट कभी खराब नहीं होगा। मौन रहकर भोजन करने से भोजन का श्वास नली में जाने का खतरा भी नहीं रहता। अतः भोजन के दौरान मैं मौन रहकर उसका पूरा आनंद लेता हूँ।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, शांति से किया गया भोजन न केवल शारीरिक भूख तृप्त करता है, बल्कि मानसिक आनंद और सात्विक ऊर्जा भी देता है।

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