एक व्यापारी था जो हमेशा तनाव में रहता था। वह अपने व्यापार के सिलसिले में एक गांव से दूसरे गांव घूमता रहता था। एक दिन, यात्रा करते समय, उसे एक आश्रम दिखाई दिया। वह आश्रम में गया और वहां एक संत को अकेले रहते हुए पाया। व्यापारी ने संत को प्रणाम किया और अपनी परेशानियों के बारे में बताया। उसने कहा कि वह बहुत दुखी है और उसे शांति नहीं मिल रही है।
संत ने उसे कुछ देर ध्यान करने के लिए कहा। व्यापारी ने ध्यान लगाने की कोशिश की, लेकिन उसका मन इधर-उधर भटक रहा था। वह ध्यान नहीं लगा पा रहा था। तब उसने संत से कहा कि वह ध्यान नहीं लगा सकता।
संत ने उसे अपने साथ आश्रम में घूमने के लिए कहा। वे दोनों आश्रम में घूम रहे थे। तभी, व्यापारी का हाथ एक पेड़ के कांटे से लग गया और उसे दर्द हुआ। संत तुरंत ही आश्रम से एक लेप लेकर आए और उसके हाथ पर लगा दिया।
फिर संत ने व्यापारी से कहा, “जिस तरह इस कांटे के चुभने से तुम्हें दर्द हो रहा है, उसी तरह तुम्हारे मन में भी काम, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या और लालच जैसे कांटे चुभे हुए हैं। जब तक तुम इन कांटों को नहीं निकालोगे, तुम्हें शांति नहीं मिलेगी।”
संत की बात सुनकर व्यापारी को समझ में आ गया कि उसे क्या करना है। वह संत का शिष्य बन गया और धीरे-धीरे अपनी बुराइयों को दूर करने लगा। उसने अपने धन का उपयोग समाज कल्याण में करना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में, उसकी अशांति दूर हो गई और उसे सच्ची शांति मिल गई।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, इंसान को काम, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या और लालच ही ईश्वर से दूर करता है। इसके चलते मन भक्तिभाव में नहीं लगता और संसारिक चीजों में भटक कर अशांत रहता है। यदि मन को शांत रखना है तो सदा संतों की संगत करते हुए सत्संग में जाने की आदत अपनाएं।