बहुत समय पहले की बात है। गंगा किनारे बसे एक छोटे से नगर में रघुनंदन नाम का बनिया रहता था। उसके पास सोने-चाँदी के बर्तन, अनाज से भरे कोठार, बहुमूल्य रत्न और कई हवेलियाँ थीं। नगरवासी उसे “धनाढ्य सेठ” कहते थे।
परंतु जितनी उसकी संपत्ति बढ़ती, उतनी ही उसकी चिंता भी बढ़ती। वह दिन-रात तिजोरियों के ताले जाँचता, पहरेदारों पर चिल्लाता, और अपने बच्चों तक से आशंका करता कि कहीं वे भी उसकी दौलत के पीछे न हों।
एक दिन नगर में प्रसिद्ध संत का आगमन हुआ। दूर-दूर से लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे। किसी ने सेठ से कहा— “सेठजी, संत के पास जाइए। उनकी बातें सुनकर मन को शांति मिलती है।”
सेठ ने सोचा— “क्यों न मैं भी जाऊँ, शायद मन का बोझ हल्का हो जाए।”
अगले दिन प्रातःकाल, सेठ भारी चढ़ावे और भेंट लेकर संत के पास पहुँचा। उसने दंडवत प्रणाम किया और बोला— “महाराज, मेरे पास धन-धान्य की कोई कमी नहीं है। फिर भी रात भर नींद नहीं आती। डर लगता है कि कहीं यह सब हाथ से न चला जाए। कृपा कर बताइए, इंसान की सबसे बड़ी दौलत क्या होती है?”
संत मुस्कुराए, फिर पास रखे मिट्टी के घड़े की ओर इशारा किया। “सेठ, यह घड़ा देखो। इसमें पानी भर दो।”
सेठ ने पानी भर दिया।
संत: “अब इसमें और पानी डालो।”
सेठ: “महाराज, अब तो यह पूरा भर गया है, और पानी नहीं समा सकता।”
संत : इसमें एक छेद कर दें तो?
सेठ : फिर तो इसे कभी भरा ही नहीं जा सकता।
संत ने गंभीर स्वर में कहा— “जैसे यह घड़ा छेद हो जाने पर भरा नहीं जा सकता, वैसे ही तेरा मन धन से भरकर भी संतुष्ट नहीं होता। तेरे मन में लोभ का छेद हो चुका है। तिजोरी चाहे सोने से भर जाए, पर लोभ का घड़ा कभी नहीं भरता। और याद रख, यह सब धन यहीं रह जाएगा। मौत आने पर तू खाली हाथ जाएगा।”
सेठ घबराकर बोला— “तो फिर इंसान के साथ क्या चलता है, महाराज?”
संत ने शांति से उत्तर दिया— “मनुष्य के साथ उसकी कमाई हुई दौलत नहीं, बल्कि उसके सद्गुण और सद्कर्म चलते हैं। तू दान करेगा तो दुआएँ मिलेगीं। तू सच बोलेगा तो लोग तुझे सम्मान देंगे। तू सेवा करेगा तो तेरा नाम अमर होगा।
यह वही पूँजी है, जो चोर छीन नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती और मृत्यु भी मिटा नहीं सकती।”
फिर संत ने एक उदाहरण दिया— “सेठ, सोच कि तेरा एक बेटा है। तू उसे ढेर सारा धन दे, पर यदि उसमें चरित्र और संस्कार न हों, तो वह सब बर्बाद कर देगा। दूसरी ओर, यदि किसी के पास थोड़ी संपत्ति हो, परंतु अच्छे संस्कार हों, तो वही सच्चा धनी है। यही है सबसे बड़ी दौलत।”
सेठ की आँखों में आँसू आ गए। उसने हाथ जोड़कर कहा— “महाराज! आज तक मैं लोहे-चाँदी को दौलत समझता रहा। अब जाना कि सबसे बड़ी दौलत तो भीतर के गुण और नेक आचरण हैं। कृपा कर मुझे भी उस मार्ग पर चलना सिखाइए।”
संत ने आशीर्वाद दिया और कहा— “आज से जरूरतमंदों की मदद करना, सच बोलना और धर्म के मार्ग पर चलना। यही तेरा खरा व्यापार है।”
उस दिन से सेठ बदल गया। उसने तिजोरियों की चिंता छोड़ दी, गरीबों को अन्न दान करने लगा, सत्य बोलने का प्रण लिया। धीरे-धीरे नगरवासी उसे सिर्फ “धनी बनिया” नहीं, बल्कि “सज्जन सेठ” कहने लगे।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, असली दौलत सोना-चाँदी नहीं, बल्कि सद्गुण, अच्छे संस्कार और नेक कर्म हैं। यही जीवन के बाद भी अमर रहते हैं और यही मनुष्य को सच्चा सुख देते हैं।