धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से — 768

बहुत समय पहले की बात है। एक शांत पर्वतीय क्षेत्र में एक प्रसिद्ध संत का आश्रम था। दूर-दूर से लोग वहाँ मार्गदर्शन पाने आते थे। उसी आश्रम में एक दिन एक युवक पहुँचा। चेहरे पर थकान, आँखों में उदासी और मन में गहरी निराशा थी। वह स्वयं को हर समय दूसरों से कम समझता था।

वह अक्सर मन ही मन कहता— “मेरे पास न विशेष योग्यता है, न भाग्य… मैं क्या कर सकता हूँ?”

युवक सेवा तो करता था, पर मन में आत्मविश्वास नहीं था। संत यह सब समझ रहे थे, पर वे जानते थे कि सही समय पर ही सही बात असर करती है।

एक दिन संत ने सभी शिष्यों को बुलाया। उनके सामने एक बीज रखा और पूछा— “बताओ, यह बीज छोटा है या बड़ा?”

सबने कहा— “छोटा है, गुरुदेव।”

संत बोले— “अगर यह बीज यह सोच ले कि मैं तो बहुत छोटा हूँ, मुझसे कुछ नहीं होगा, तो क्या कभी यह वृक्ष बन पाएगा?”

सभी चुप हो गए।

संत ने उस युवक की ओर देखते हुए कहा—“निराशा और स्वयं को छोटा मानना, आत्मा की शक्ति को बाँध देता है। शक्ति कम नहीं होती, बस ढकी रहती है।”

फिर संत उसे आश्रम के बाहर ले गए। वहाँ एक विशाल बरगद का पेड़ था। संत बोले—
“कभी यह भी इसी तरह का एक छोटा सा बीज था। न इसे अपनी शक्ति का ज्ञान था, न भविष्य का। पर इसने अपनी प्रकृति पर संदेह नहीं किया।”

युवक की आँखों में आँसू आ गए। उसे पहली बार लगा कि उसकी समस्या असफलता नहीं, बल्कि स्वयं पर अविश्वास है।

संत ने आगे कहा—“जो व्यक्ति स्वयं को छोटा समझता है, वह अपनी ही शक्ति का अपमान करता है। ईश्वर ने किसी को भी व्यर्थ नहीं बनाया। हर मनुष्य में कोई न कोई विशेष उद्देश्य छिपा है।”

फिर संत ने एक दीपक जलाया और बोले—“अंधकार कितना भी बड़ा हो, एक छोटा सा दीपक उसे चुनौती दे सकता है। पर यदि दीपक यह सोच ले कि मैं तो छोटा हूँ, तो अंधकार कभी दूर नहीं होगा।”

उस दिन के बाद युवक की सोच बदलने लगी। उसने निराशा को त्यागकर कर्म पर विश्वास करना शुरू किया। समय बीतने के साथ वही युवक आत्मविश्वास से भर गया और आगे चलकर अनेक लोगों के लिए आशा और प्रेरणा का स्रोत बना।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, निराशा और स्वयं को छोटा मानने की भावना हमारी आंतरिक शक्ति को कमजोर कर देती है। जब हम अपने मूल्य को पहचानते हैं, तभी जीवन में सही परिवर्तन आता है। सोच बदलेगी, तो शक्ति जागेगी।

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