धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 766

प्राचीन काल में एक शांत पर्वतीय क्षेत्र में एक प्रसिद्ध संत रहते थे। उनका आश्रम छोटा था, लेकिन वहाँ से निकलने वाली सीख बहुत बड़ी थी। संत का मानना था कि मनुष्य को आगे बढ़ाने के लिए डाँट या डर नहीं, बल्कि समय पर की गई सच्ची प्रशंसा सबसे बड़ा साधन होती है।

आश्रम में कई शिष्य रहते थे। कोई विद्या में निपुण था, कोई सेवा में, तो कोई ध्यान में। लेकिन एक शिष्य ऐसा भी था जो सबसे शांत रहता। वह न प्रवचन देता, न प्रश्न पूछता। उसका काम केवल सेवा करना था—सुबह सूर्योदय से पहले उठकर आश्रम की सफाई, जल भरना, अतिथियों के लिए भोजन की व्यवस्था और रात को सबके सो जाने के बाद दीपक बुझाना।

वह सब कुछ करता, लेकिन कभी किसी को बताता नहीं।

एक दिन आश्रम में अकाल पीड़ित गाँव के लोग सहायता माँगने आए। शिष्य बिना कहे उनके लिए अन्न, जल और विश्राम की व्यवस्था करने लगा। किसी ने ध्यान नहीं दिया, क्योंकि सभी अपने-अपने कामों में लगे थे। लेकिन संत सब देख रहे थे।

संध्या के समय संत ने सभी शिष्यों को एकत्र किया और बोले, “आज आश्रम में सबसे बड़ा उपदेश नहीं, सबसे बड़ा कर्म हुआ है।”

सब एक-दूसरे को देखने लगे। संत ने उस शांत शिष्य को आगे बुलाया और उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “तुमने बिना कहे, बिना दिखावे के, दूसरों के दुख को अपना समझा। यही सच्ची साधना है।”

यह सुनकर शिष्य का सिर झुक गया और आँखों से आँसू बहने लगे। वर्षों की चुप सेवा को पहली बार शब्द मिले थे। उस क्षण उसके भीतर ऐसा आत्मबल जागा, जैसा उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था।

अगले दिनों में उसका उत्साह और बढ़ गया। अब वह सेवा के साथ-साथ अन्य शिष्यों को भी प्रेम से प्रेरित करने लगा। उसका व्यवहार किसी उपदेश से अधिक प्रभावी था।

यह देखकर बाकी शिष्यों ने भी समझा कि अच्छा कार्य केवल करने से ही नहीं, उसे पहचानने और सराहने से भी बढ़ता है।

आश्रम का वातावरण बदल गया। लोग अब एक-दूसरे की कमियाँ नहीं, बल्कि अच्छाइयाँ देखने लगे। कोई छोटी-सी मदद करता, तो सब उसका सम्मान करते। इससे हर व्यक्ति बेहतर बनने की कोशिश करने लगा।

एक दिन एक शिष्य ने संत से पूछा, “गुरुदेव, क्या बार-बार प्रशंसा करने से अहंकार नहीं बढ़ता?”

संत मुस्कराए और बोले, “बेटा, अहंकार प्रशंसा से नहीं, अहंकार प्रशंसा के उद्देश्य से कर्म करने से बढ़ता है। जो प्रशंसा सेवा की भावना जगाए,वह अहंकार नहीं, प्रेरणा बनती है।”

फिर संत ने आगे कहा, “जब तुम किसी के अच्छे कर्म की सराहना करते हो, तो तुम केवल एक व्यक्ति को नहीं, पूरे समाज को बेहतर बनाने का बीज बोते हो।”

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, अच्छे कार्यों की प्रशंसा करना मनुष्य के भीतर छिपी अच्छाई को जगाने जैसा है। एक सच्ची सराहना कई हताश मनों में आशा का दीप जला सकती है।

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