एक गांव में एक बदमाश किस्म का व्यक्ति रहता था। उसका काम आमजन को तंग करना और उनको लूटने का था। एक बार उस गांव में एक संत आएं। रात को जब वे सत्संग करने लगे तो बदमाश भी वहां आ गया।
बदमाश ने संत से कहा—इन प्रवचनों से कुछ नहीं होता। ये बातें किसी का मन नहीं बदल सकती। यदि आपके पास किसी का हृदय परिवर्तन करने का कोई प्रमाणिक तथ्य है तो यहां सत्संग करो—वर्ना ग्रामीणों का समय खराब करने की आवश्यकता नहीं है।
संत ने कहा, मेरे पास हृदय परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रमाण है। सत्संग के बल पर वह डाकू से मानव नहीं बल्कि भगवान बन गया।
संत ने कहा, प्राचीन समय में एक डाकू था—रत्नाकर। उसका काम था राह चलते लोगों को लूटना, डराना और मार देना। कभी उसने सोचा भी नहीं था कि उसका जीवन किसी और राह पर जा सकता है।
एक दिन जंगल में उसकी भेंट हुई महर्षि नारद से। रत्नाकर ने उन्हें रोका, “जो कुछ भी है, दे दो!”
नारद मुस्कराए, “बेटा, तू यह काम अपने परिवार के लिए करता है, पर क्या तेरा परिवार तेरे पाप में भागी बनेगा?”
रत्नाकर को हंसी आ गई, “क्यों नहीं! मैं उनके लिए करता हूँ, वे ज़रूर जिम्मेदार होंगे।”
नारद ने कहा, “जाकर पूछ ले — क्या तेरे पापों का बोझ वे अपने हिस्से में लेंगे?”
रत्नाकर गया,पर परिवार ने साफ़ कहा— “हमने तो तुझसे कहा था, सही काम कर। तेरे पाप तेरा कर्म हैं।”
रत्नाकर का हृदय हिल गया। वह लौटकर नारद के चरणों में गिर पड़ा। “मुझे बदलना है,” उसने कहा।
नारद ने कहा, “राम नाम जप, और ध्यान कर।”
रत्नाकर ने ध्यान लगाया, वर्षों बीते, और वही रत्नाकर आगे चलकर बने — महर्षि वाल्मीकि,जिन्होंने रामायण जैसी अमर कृति रची।
संत ने अपने प्रवचन में यह कथा सुनाकर कहा — “आज भी रत्नाकर हर व्यक्ति के भीतर है।”
कभी-कभी हम भी अपनी आदतों, झूठ, क्रोध, लालच या स्वार्थ के ‘डाकू’ बन जाते हैं।
पर जब भीतर से यह सवाल उठे कि— “क्या मेरे कर्म सही हैं?” तभी परिवर्तन की शुरुआत होती है।
वाल्मीकि के जीवन की शिक्षा यह है कि — कोई भी व्यक्ति पापी से महर्षि बन सकता है, अगर वह अपने अंदर झाँकने की हिम्मत करे। परिवर्तन बाहर नहीं, भीतर से शुरू होता है।लेखन, चिंतन और ध्यान — ये आत्मशुद्धि के साधन हैं। जो अपने मन को जीत ले, वही सच्चा ज्ञानी है।
इस कथा को सुनते ही बदमाश संत के चरणों में गिर गया और कहा जैसे नारद ने रत्नाकर का हृदय परिवर्तन किया—वैसे ही आज के सत्संग का असर मेरे चित्त पर पड़ा है। आज के बाद मैं किसी को भी तंग नहीं करुंगा। नित्य सत्संग करके अपना जीवन यापन करुंगा।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, आज जब लोग अपने कर्मों का दोष समाज, समय या परिस्थिति पर डालते हैं — वाल्मीकि हमें सिखाते हैं कि “जिम्मेदारी अपने कर्मों की खुद लो। परिवर्तन तुम्हारे भीतर है।” और यही शिक्षा आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक है —क्योंकि तकनीक बदल गई है, पर मनुष्य का मन आज भी वही है।









