धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश—62

जो छली,कपटी,स्वार्थी,विषयी,काम क्रोध, लोभ मोह से युक्त ,परहानि करने वाले लम्पटी,मिथ्यावादी,अविद्वान्,कुसंगी,आलसी जो कोई दाता हो उसके पास बारम्बार मांगना,धरना देना,ना किये पश्चात् भी हटता से मांगते ही जाना, सन्तोष न होना, जो न दे उस की निन्दा करना,शाप और गलिप्रदानादि देना।

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अनेक वार जो सेवा करे और एक वार न करे तो उस का शत्रु बन जाना, ऊपर से साधु का वेश बना लोगो को बहकाकर ठगना और अपने पास पदार्थ हो तो भी मेरे पास कुछ भी नहीं है कहना,सब को फुसलू कर स्वार्थ सिद्ध करना, रात दिन भीख मांगने ही में प्रसन्न रहना, निमन्त्रण दिये पर यथेष्ट भंगादि मादक द्रव्य खा पीकर पराया पदार्थ खाना,पुन: उन्मत्त होकर प्रमादी होना, सत्य मार्ग का विरोध और झूठ मार्ग में अपने प्रयोजनार्थ चलना,वैसे ही अपने चेलों का केवल अपनी ही सेवा करने का उपदेश करना, अन्य योग्य पुरूषों की सेवा करने का नहीं, सद्विद्यादि प्रवृत्ति के विरोधी,जगत व्यवहार अर्थात् स्त्री ,पुरूष ,माता,पिता,सन्तान,राजा ,प्रजा इष्टमित्रों में अप्रीति कराना कि ये सब असत्य हैं और जगत् भ मिथ्या हैं। इत्यादि दुष्ट उपदेश करना आदि कुपात्रों के लक्षण हैं।
और जो ब्रह्मचारी,जितेन्द्रिय,वेदादि विद्या के पढऩे हारे,सुशील सत्यवादी,परोपकारप्रिय,पुरूषर्थी,उदार, विद्या, धर्म की निरन्तर उन्नति करनेहारे,धर्मात्मा , शान्त,निन्दा, स्तुति में हर्ष शोकरहित,निर्भय, उत्साहि,योगी, ज्ञानी,सृष्टिक्रम, वेदाज्ञा,ईश्वर के गुण,कर्म, स्वभावानुकूल वत्र्तमान करनेहारे,न्याय की रीति युक्त,पक्षपातरहित,सत्योपदेश और सत्यशास्त्रों के पढऩे पढऩेहारे के परीक्षक,किसी को लल्लो पत्तों न करें, प्रश्रों के यर्थाथ समाधानकत्र्ता,अपने आत्मा के तुल्य अन्य का भी सुख दुख हानि, लाभ समझने वाले,अविद्यादि क्लेश,हठ दुरग्रहाभिमानरहित,अमृत के समान अपमान और विष के समान मान को समझने वाले, सन्तोषी,जो कोई प्रीति से जितना देवे उतने ही से प्रसन्न, एक वार आपत्काल में मांगे भी न देने वा वर्जने पर भी दुख वा बुरी चेष्टा न करना, वहां से झट लौट जाना, उस की निन्दा न करना, सुखी पुरूषों के साथ मित्रता,दुखियों पर करूणा,सत्यवादी,सत्कारी,निष्कपट,ईष्याद्वेषरहित,गम्भीराशय,सत्पुरूष, धर्म से युक्त और सर्वथा दुष्टाचार से रहित अपने तन मन धन को परोपकार करने में लगाने वाले पराये सुख के लिये अपने प्राणों को भी समर्पितकत्र्ता इत्यादि शुभलक्षणयुक्त सुपात्र होते हैं। परन्तु दुर्भिक्षादि आपत्काल में अन्न, जल, वस्त्र और औषधि पथ्य स्थान के अधिकारी सब प्राणीमात्र हो सकते हैं।
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