एक बार एक तपस्वी जंगल में तप कर रहा था। नारद जी उधर से निकले तो उसने साष्टांग प्रणाम किया और पूछा-मुनिवर कहाँ जा रहे हैं? नारदजी ने कहा-विष्णुलोक को भगवान के दर्शन करने जा रहे हैं। तपस्वी ने कहा-एक प्रश्न मेरा भी पूछते आइए कि-मुझे उनके दर्शन कब तक होंगे?
नारद जी विष्णुलोक पहुँचे तो उनने उस तपस्वी का भी प्रश्न पूछा-भगवान ने कहा-84 लाख योनियों में अभी 18 बार उसे और चक्कर लगाने पड़ेंगे तब कही मेरे दर्शन होंगे। वापिस लौटने पर नारदजी ने यही उत्तर उस तपस्वी को सुना दिया।
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तपस्वी अधीर नहीं हुआ। समय की उसे जल्दी न थी। इतना आश्वासन उसे पर्याप्त लगा कि भगवान के दर्शन देर सबेर में उसे होंगे अवश्य! इससे उसे बड़ी प्रसन्नता हुईं और दूने उत्साह के साथ अपनी तपस्या में लग गया। उसकी इस अविचल निष्ठा और धैर्य को देखकर भगवान बड़े प्रसन्न हुये और उनने तुरन्त ही उस तपस्वी को दर्शन दे दिये।
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कुछ दिन बाद नारद जी उधर से फिर निकले तो भक्त ने कहा-मुझे तो आपके जाने के दूसरे दिन ही दर्शन हो गये थे। इस पर नारद जी बहुत दुखी हुये और विष्णु भगवान के पास जाकर शिकायत की कि आपने मुझसे कहा इनको लंबी अवधि में दर्शन होंगे और आपने तुरन्त ही दर्शन देकर मुझे झूठा बनाया।
भगवान ने कहा-नारद जिसकी निष्ठा अविचल है जिसमें असीम धैर्य है उसके तो मैं सदा ही समीप हूँ। देर तो उन्हें लगती है तो सघन पल में उतावली करते है। उस भक्त के प्रश्न में उतावली का आभास देखकर मैंने लंबी अवधि बताई थी पर जब देखा कि वह तो बहुत ही धैर्य वान है तो उतना विलंब लगाने की आवश्यकता न समझ और तुरन्त दर्शन दे दिये।
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