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ओशो : किसको धोखा दे रहे हो?

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जाज गुरजिएफ के संबंध में, उसके ण्क विरोधी ने यह वक्तव्य फ्रंास में फैला रखा था कि गुरजिएफ से इस तरह बचो जैसे कोई प्लेग से बचता है। और इसमें सचाई है,क्योंकि प्लेग का मारा तो शायद बच भी जाए,गुरजिएफ का मारा नहीं बचेगा। सत्संग में जो मारा गया,सदा के लिए मारा गया,फिर वहां से जिंदा लौटने का कोई उपाय नहीं हैं। इसलिए लोग बचते हैं। या अगर चले भी आते हैं तो बहरे हो जाते हैं, कठोर हो जाते हैं, पाषाण की तरह हो जाते हैं, अगर चले भी जाते हैं तो हजार तरह की शंकाओं को भीतर उठाते रहते हैं,हजार तरह से मन डांवाडोल करते रहते हैं। अगर कहीं सम्मिलित भी हो जाते हैं,तो भी अधूरे-अधूरे सम्मिलित होते हैं,पूरे नहीं सम्मिलित होते हैं। और जब तक तुम सौ प्रतिशत सम्मिलित नहीं हो,सम्मिलित नहीं हो। क्योंकि सौ प्रतिशत से कम से कम में कोई सम्मिलन होता ही नहीं।
देखा न,पानी गरम होता है तो सौ डिग्री पर भाप बनाता है। तुम यह मत सोचना कि उठानवे डिग्री पर बनना चाहिए,कुछ तो बनना चाहिए, अठानवे प्रतिशत भाप बनना चाहिए। नहीं, एक प्रतिशत भी नहीं बनता। निन्यानवे डिग्री पर भी नहीं बनता। जरा-सी भी कमी रह जाए सौ डिग्री में तो पानी भाप नहीं बनाता भाप तो बनता है ठीक सौ डिग्री पर।
और ऐसे ही उसका रंग लगता है ठीक सौ डिग्री पर। कभी-कभी आदमी बचता है, आता ही नहीं। आ जाता है तो बहरा हो जाता है। ऐसे सुनता है जैसे बिल्कुल वज्र बहरे। जीसस ने बार-बार अपने शिष्यों से कहा है कान हों तो सुन लो। आंख हो तो देख लो। उनके पास तुम जैसे ही कान थे, और तुम जैसी ही आंखे थी। वे अंधो से और बहरो से नहीं बोल रहे थे। वे कोई अन्धे-बहरों के स्कूल में नहीं चले गए थे। फिर क्यों बार-बार जीसस कहते हैं आंख हो तो देख लो,कान हो तो सुन लो। क्योंकि आंखे भी है लेकिन लोग बंद किये हुए है। जीसस को देखने में डर लगता है। कहीं यह आदमी दिख जाए,तो फिर हमारी जिंदगी भी वहीं की वहीं नहीं रह जायेगी जैसी थी। एक भूचाल आयेगा। एक क्रांति घटेगी। इसका रंग चढ़ जायेगा। कान है तो बंद कर लेते हैं। सुनते मालूम पड़ते हैं और सुनते नहीं। फिर सुन भी लें तो भीतर हजार तरह के विवाद करते हैं। सुन भी लें तो कुछ का कुछ अर्थ कर लेते हैं। सुन भी लें, बात कुछ खयाल में आ जाए,तो पूरा नहीं उतरते। होशियारों का काम नहीं चालाकी से चलते हैं।
यहां मेरे पास लोग हैं,सब तरह के लोग है। ऐसे लोग भी है जो सन्यस्त हो गए है और फिर भी होशियार हैं। संन्यस्त होकर होशियार। फिर तुम संन्यस्त हुए ही नहीं। होशियारी। अभी भी तुम अपना हिसाब लगाए रखते हो। मुझे भी धोखा देते हो। कोई धोखा देने का मौका आ जाए तो नहीं चुकते। फिर यह भी उपाय करते रहते है कि धोखां नहीं दिया, इसका पता भी न चल पाए। फिर पकड़े जाते हैं, तो क्षमा -याचना कर लेतें हैं। मगर वह क्षमा-याचना भी झूठ होती हैं। वह झूठ इसलिए होती है कि फिर दुबारा वही करते हैं। वह क्षमा-याचना सच कैसे हो सकती हैं? इस तरह की चालबाजियां। तो फिर यहां रहो ही मत। फिर तुम्हें जहां ठीक लगे वहां जाओ। लेकिन जहां आओ, वहां सौ प्रतिशत डूबों। कहीं भी डूबो तो।
असली बात डूबने की है, कहां डूबे ,यह सवाल नहीं है। किस सत्संग में तुम्हें रंग, चढ़ेगा, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि रंगरेज तो एक ही है,उसके हाथ अनेक होंगे। मगर रंग चढऩे दोगे,तब न। दूर-दूर खड़े रहे, बचाव करते रहे,छाता लगाए रहे कि रंग न पड़ जाए कही ऊपर….।
तुम्हारी हालात वैसी है जैसी कि होली के दिनों में होती है लोगो की। लोग रंग डालने निकलते हैं डलवाने निकलते हैं,फिर भी उपाय करके निकलते हैं। एक तो साल-भर लोग कपड़े बचाकर रखते हैं फाग के लिए,गंदे कपड़े बचाकर रखते हैं। धुलवा कर रखते हैं कि जंचे ऐसे कि बिल्कुल साफ-सुथरे है,मगर खराब हो जाए तो कोई हर्जा नहीं,कुछ खोता नहीं,तो फिर जरूरत क्या थी रंग डलवाने की और डालने की? किसको धोखा दे रहे हो?
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