मनुष्य जितने भी पाप करता है उसके मूल में उसका अंह ही पलता है। अभिमान में आदमी अन्धा हो जाता है और न करने के लायक कार्य भी कर बैठता है। एक बार इन्द्रद्युम्न राजा के दरबार में अगस्त्य मुनि पधारे। सब ने उठकर मुनि को प्रणाम किया, सत्कार किया परन्तु राजा बैठा रहा और बैठे बैठे ही प्रणाम कर लिया। मुनि को क्रोध आया, और कहा, हे दुष्ट! तू मतवाले हाथी की तरह बैठा है। जा मैं तूझे शाप देता हूं तू अगले जन्म में हाथी ही बनेगा। इसी शाप के कारण राजा इन्द्रद्वुम्न, इस जन्म में गजेन्द्र बना। परन्तु पूर्व जन्म की याद हैं,इसी कारण सहायता के लिए परमात्मा से प्रार्थना की, भगवान आए और मोक्ष दिलवा गए।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह मानव शरीर ही त्रिकूट पर्वत है और जीवात्मा गजेन्द्र इसमें निवास करता है। मानव शरीर में त्रिकूट अर्थात् , सतोगुण—रजोगुण और तमोगुण—काम, क्रोध और लोभ तीनों का निवास रहता है। यह संसार सरोवर है। जीव इसमें विषयासक्त होकर क्रीड़ा करता है। कालरूपी मगरमच्छ इसे पकड़े हुए हैं, परन्तु विषायान्ध जीव उसको समझ नहीं पा रहा है। मोहरूपी जल में वह डूबा रहता हैं और परमात्मा को भूल जाता है। मनुष्य को जब काल पकड़ता है, तब उसको, पत्नी, बच्चे, माता—पिता व परिवार सम्बन्धी कोई भी उसे नहीं बचा सकते, तब असहाय होकर वह परमात्मा को पुकारता है।
धर्म प्रेमी सज्जनों! परमात्मा को संकट में ही याद मत करो, सुख में उसको पुकारो। यदि आप निरन्तर ,चाहे सुखी हो या दुखी, उसको याद रखोगे, उसका सुमिरण —भजन, संकीर्तन करोगे तो दु:ख कभी आयेगा ही नहीं, अत: सदा सर्वदा आनन्द पाने के लिए उस आनन्द पाने के लिए उस आनन्द परमात्मा को हमेशा याद रखो।
परमात्मा पूर्ण प्यार चाहते हैं। यदि आप प्रतिदिन उनसे यह विनति करोगे कि हे प्रभो! अन्त समय में आपका दर्शन हो,केवल आपका ही नहीं राधा जी भी आपके साथ हों,युगल जोड़ी को निहारते हुए मेरे प्राण छूटे, तो वे करूणासागर अवश्य आयेंगे।