धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश—13

विवाह आठ प्रकार का होता है। एक ब्रहा्र, दूसरा दैव,तीसरा आर्ष, चौथा प्रजापत्य, पांचवा आसुर ,छटा गान्धर्व, सातवा राक्षस, आठवां पैशाच। इन विवाहों की यह व्यवस्था है कि -वर कन्या दोनों यथावत् ब्रहा्रचर्य से पूर्ण विद्वान धर्मिक और सुशील हो उन का परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ब्राहा्र कहाता है। विस्तृतयज्ञ करने में ऋत्विक कर्म करते हुए जमाता को अलक ङ्रायूक्त कन्या देना दैव। वर से कुछ लेके विवाह होना आर्ष । दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के अर्थ होना प्राजापत्य। वर और कन्या को कुछ देके विवाह आसुर। अनियम असमय किसी कारण से वर-कन्या का इन्छापूर्वक परस्पर संयोग होना गान्र्धव। लड़ाई करके बालात्कार अर्थात्छीन, कपट से कन्या ग्रहण करना राक्षस। शयन वा मद्यादि पी हुई पागल करूा से बालात्कार संयोग करना पैशाच। नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
इन सब विवाहों में ब्रहा्रविवाह सर्वोत्कृष्ट,दैव,मध्यम, आर्ष, आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है। इसलिये यही निश्चय रखना चाहिये कि कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकान्त में मेल न होना चाहिये क्योंकि युवावस्था में सी पुरूष का एकान्तवास दूषकारक है। परन्तु जब कन्या वा वर के विवाह का समय अर्थात् जब एक वर्ष वा छ:महीने ब्रहा्रचर्याश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहैं तब उन कन्या और कुमारों का प्रतिबिम्ब अर्थात् जिस को फोटोग्राफ कहते हैं अथवा प्रतिकृति उतार के कन्याओं की अध्यापिकाओं के पास कुमारों की, कुमारों के अध्यापकों के पास कन्याओं की प्रतिकृति भेज देंवे। जिस-जिस का रूप मिल जाय उस-उस के इतिहास अर्थात् जन्म से लेके उस दिन पर्यन्त जन्मचरित्र का पुस्तक हो उस को अध्यापक लोग मंगवा के देखें। जब दोनों के गुण कर्म स्वभाव सदृश हों तब जिस-जिस के साथ जिस -जिस का विवाह होना योग्य समझें उस-उस पुरूष और कन्या का प्रतिबिंब और इतिहास कन्या और वर के हाथ में देवें और कहें कि इस में जो तुम्हारा अभिप्राय हो से हम को विदित कर देना। जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने का हो जाय तब उन दोनों का समावत्र्तन एक ही समय में होवे।
जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वहां, नहीं तो कन्या के माता पिता के घर में विवाह होना योग्य है। जब वे समक्ष हों तब उन अध्यापकों वा कन्या के माता पिता आदि भद्रपुरूषों के सामने उन दोनों की आपस में बातचीत, शास्त्रर्थ कराना और जो कुछ गुप्त व्यवहार पूछें से भी सभा में लिखके एक दूसरे के हाथ में देकर प्रश्रोत्तर कर लेवें।जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
जब दोनों का दृढ़ प्रेम विवाह करने में हो जाय तब उनके खान-पान का उत्त्म प्रबन्ध होना चाहिये कि जिस से उनका शरीर जो पूर्व ब्रहा्रचार्य और विद्याध्ययरूप तपश्चर्या और कष्ट से दूर्बल होता है वह चन्द्रमा की कला के समान बढ़ के पुष्ट थोड़े ही दिनों में हो जाय।
पश्चात् जिस दिन कन्या रजस्वला होकर जब शुद्ध हो तब वेदी और मण्डप रचके अनेक सुगन्ध्यादि द्रव्य और घृताकि का होम तथा अनेक विद्वान पुरूष और स्त्रियों का यथायोग्य सत्कार करें। पश्चात् जिस दिन ऋतुदान देना योग्य समझें उसी दिन संस्कारविधि पुस्तकस्थ विधि के अनुसार विधि के अनुसार सब कर्म करके मध्यरात्रि वा दश बजे अति प्रसन्नता से सब के सामने पाणिग्रहणपूर्वक विवाह की विधि को पूरा करके एकान्तसेवन करें। पुरूष वीय्र्यस्थापन और स्त्री वीर्याकर्षण की जो विधि है उसी के अनुसार करें। जहां तक बने वहां तक ब्रहा्रचर्य के वीय्र्य को व्यर्थ न जाने दें क्योंकि उस वीय्र्य वा रज से जो शरीर उत्पन्न होता है वह अपूर्व उत्तम सन्तान होता है। जब वीय्र्य का गर्भाश्य में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरूष दोनों स्थिर नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्नचित्त रहैं, डिगें नहीं। पुरूष अपने शरीर को ढ़ीला छोड़े और स्त्री वीय्र्यप्राप्ति समय वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीय्र्य का ऊपर आकषर्ण करके गर्भाशय में स्थित करें। पश्चात् दोनों शुद्ध जल से स्नान करें।जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
गर्भस्थिति होने का परिज्ञान विदुषी स्त्री को तो उसी समय हो जाता है। परन्तु इस का निश्चय एक मास के पश्चात् रजस्वला न होने पर सब को हो जाता है। सोंठ, केशर, असगन्ध, छोटी इलायची और सालममिश्री डाल के गर्भ करके जो प्रथम ही रक्खा हुआ ठण्डा दूध है उसी को यथारूचि दोनों पी कर अलग-अलग अपनी-अपनी शय्या में शयन करें। यही विधि जब-जब गर्भाधान क्रिया करें तब-तब करना उचित है।
जब महीने भर में रजस्वला न होने से गर्भस्थिति का निश्चय हो जाय तब से एक वर्ष प्रय्र्यन्त स्त्री पुरूष का समागम कभी न होना चाहिये। क्योंकि ऐसा न होने से सन्तान उत्तम और पुन: दूसरा सत्नान भी वैसा ही होता है। अन्यथ वीय्र्य व्यर्थ जाता दोनों की आयू घट जाती और अनके प्रकार के रोग होते है परन्तु ऊपर से भाषणादि प्रेमयुक्त व्यवहार दोनों का अवश्य चाहिये। पुरूष वीय्र्य की स्थिति और स्त्री गर्भ की रक्षा और भोजन छादन इस प्रकार का करे कि जिस से पुरूष का वीय्र्य स्वपन्न में भी नष्ट न हो। और गर्भ में बालक का शरीर अत्युत्तम रूप लावण्य, पुष्टि, बल, पराक्रमयुक्त होकर दशवें महीनें में जन्म होवें। विशेष उस की रक्षा चौथे महीने से और अतिविशेष आठवें महीने में जन्म होवे। विशेष उस की रक्षा चौथे महीने से और अतिविशेष आठवें महीने से आगे करनी चाहिये। कभी गर्भावती स्त्री, रेचक,रूक्ष, मादकद्रवय, बुद्धि और बलनाशक पदार्थो के भोजनादि का सेवन न करे,किन्तु घी, दुध, उत्तम चावल,गेहूं, मूंग,उर्द,आदि अन्न पान और देशकाल का भी सेवन युक्तिपूर्वक करे।
गर्भ में दो संस्कार एक चौथे महीने पुंसवन और दूसरा आठवें महनें में सीमेन्तोन्नयन विधि के अनुकुल करे। जब सन्तान का जन्म हो तब स्त्री और लडक़े के शरीर की रक्षा बहुत सावधानी से करें अर्थात् शुण्ठीपाक अथवा सौभाग्यशुण्ठीपाक प्रथम ही बनवा रक्खें। उस समय सुगन्धियुक्त उष्ण जल कि किञ्चित् उष्ण रहा हो उसी से स्त्री स्नान करें औैर बालक को भी स्नान करावे। तत्पशचात् नाड़ीछेदन-बालक की नाभि के जड़ में एक कोमल सूत से बांध चार अंगुल छोडु के ऊपर से काट डाले। उस को ऐसा बांधे कि जिस से शरीर से रूधिर का एक बिन्दु भ न जाने पावे। पश्चात् उस स्नान को शुद्ध करके उस के द्वार के भीतर सुगन्धादियुक्त घृतादि का होम करे। तत्पश्चात् सन्तान के कान में पिता वेदोइसीति अर्थात तेरा नाम वेद है, सुनाकर घी और सहत को लेके सोने की शलाका से जीभ पर ओइम् अक्षर लिख कर मधु और घृत को उसी शलाका से चटवावे। पश्चात् उसकी माता को दे देवे। जा दुध पीना चाहे तो उस की माता पिलावे जो उस की माता के दुध न हो तो किसी स्त्री की परीक्षा कर के उसका दूध पिलावे।
पश्चात् दूसरे शुद्ध कोठरी वा जहां का वायु शुद्ध हो उसमें सुगन्धित घी, होम प्रात: और सांयकाल किया करे और उसी में प्रसूता स्त्री तथा बालक को रक्खे। छ: दिन तक माता का दूध पिये और स्त्री भी अपने शरीर के पुष्टि के अर्थ अनेक प्रकार के उत्तम भोजन करें और योनिसंकोचादि भी करें। छठे दिन स्त्री बाहर निकले और सन्तान के दूध पीने के लिए कोई धायी रक्खे। उस को खानपान अच्छा करावे। वह सन्तान को दुध पिलाया करे और पालन भी करे परन्तु उस की माता लडक़े पर पूर्ण दृष्टि रखें, किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार उस के पालन में न हों। स्त्री दूध बन्ध करने के अर्थ स्तन के अग्रभाग पर ऐसा लेप करें कि जिस से दूध स्त्रावित न हो। उसी प्रकार खान-पान का व्यवहार भी यथायोग्य रक्खे।
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Jeewan Aadhar Editor Desk