जब सन्यासी मार्ग में चले तब इधर-उधर न देख कर नीचे पृथिवी पर दृष्टि के चले। सदा वस्त्र से छान कर जल पीये,निरन्तर सत्य ही बोले,सर्वदा मन से विचार के सत्य का ग्रहण कर असत्य को छोड़ देवे।
जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे तो संन्यासी को उचित है कि उस पर आप क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश ही करे और एक मुख के, दो नासिका के,दो आँख के और दो कान के छिद्रों में बिखरी हुई वाणी को किसी कारण मिथ्या कभी न बोले।
अपने आत्मा और परमात्मा में स्थिर अपेक्षा रहित मद्य मांसादि वर्जित होकर आत्मा ही के सहाय से सुखार्थी होकर इस संसार में धर्म और विद्या के बढ़ाने में उपदेश के लिये सदा विचरता रहै।
केश,नख,डाढ़ी,मूँछ का छेदन करवावे। सुन्दर पात्र,दण्ड और कुसुम्भ आदि से रंगे हुए वस्त्रों को ग्रहण करके निश्चितात्मा सब भूतों को पीड़ा न देकर सर्वत्र विचरे। पार्ट टाइम नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक,राग-द्वेष को छोड़,सब प्राणियों से निर्वैर वत्र्तकर मोक्ष के लिये सामाथ्र्य बढ़ाया करे।
कोई संसार में उसको दूषित वा भूषित करे तो जिस किसी आश्रम में वत्र्तता हुआ पुरूष अर्थात् संन्यासी सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर स्वयं धर्मात्मा और अन्यों को धर्मात्मा करने में प्रयत्न किया करे। और सह अपने मन में निश्चित जाने कि दण्ड,कमाण्डलु और काषायवस्त्र आदि चिह्न धारण धर्म का कारण नहीं है। सब मनुष्यादि प्राणियों की सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है।
क्योंकि यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीस के गदरे जल में डालने से जल का शोधक होता है,तदपि विना डाले उसके नामकथन वा श्रवणमात्र से उसका जल शुद्ध नहीं हो सकता।
इसलिये ब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मवित् संन्यासी को उचित है कि ओंकारपूर्वक सप्तव्याहृतियों से विधिपूर्वक प्राणायाम जितनी शक्ति हो उतने करे। परन्तु तीन से तो न्यून प्राणायाम कभी न करे,यही संन्यासी का परमपत है। क्योंकि जैसे अग्रि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते है, वैसे ही प्राणों के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष ,भस्मीभूत होते हैं।
इसलिए संन्यासी लोग नित्यप्रति प्राणायामों से आत्मा अन्तकरण और इन्द्रियों के दोष,धारणाओं से पाप,प्रत्याहार से संगदोष,ध्यान से अनीश्वर के गुणों अर्थात् हर्ष शोक और अविद्यादि जीव के दोषों को भस्मीभूत करें।
इसी ध्यानयोग से जो अयोगी अविद्वानों के दु:ख से जानने योग्य छोटे बड़े पदार्थो में परमात्मा की व्याप्ति उसकी और अपने आत्मा और अन्तर्यामी परमेश्वर की गति को देखे। जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
सब भूतों से निर्वैर,इन्द्रियों के दुष्ट विषयों का त्याग,वेदोक्त कर्म और अत्युग्र तपश्चरण से संसार में मोक्षपद को पूर्वोक्त संन्यासी ही सिद्ध कर और करा सकते है: अन्य नहीं।
जब संन्यासी सब भावों में अर्थात् पदार्थो में नि:स्पृह कांक्षारहित औश्र सब बाहर भीतर के व्यवहारों में भाव से पवित्र होता है, तभी इस देह में और मरण पाके निरन्तर सुख को प्राप्त होता है।
इसलिए ब्राह्मचारी,गृहस्थ,वानप्रस्थ और संनयासियों को योग्य है कि प्रयत्न से दश लक्षणयुक्त निम्रलिखित धर्म का सेवन नित्य करें।
पहला-लक्षण सदा धैर्य रखना। दूसरा- जो कि निन्दा स्तुति मानापमान हानिलाभ आदि दु:खों में भी सहनशील रहना। तीसरा मन को सदा धर्म में प्रवृत कर अर्धम से रोक देना। चौथा-चोरी त्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल कपट विश्वासघात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से परपदार्थ का ग्रहण करना चोरी और उस को छोड़ देना साहुकारी कहाती है। पांचवा- राग-द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल मृतिका मार्जन आदि के बाहर की पवित्रता रखना। छठा-अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म में ही सदा चलाना। जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
सातवां-मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य प्रदार्थ दुष्टों का संग आलस्य प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थो का सेवन सत्यपुरूषों का सगं योगाभ्यास धर्माचरण ब्राह्मचर्य आदि शुभकर्मो से बुद्धि का बढ़ाना। आठवां- पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थज्ञान आदि उन से यथायोग्य उपकार लेना,सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में,जैसा मन में वैसा वाणी में,जैसा वाणी मैं वैसा कर्म में वत्र्तना विद्या,इससे विपरीत अविद्या है। नववां- जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना वैसा ही बोलना और वैसा ही करना भी। तथा दसंवा-क्रोधादि दोषों को छोडक़े शान्त्यादि गुणों को ग्रहण करना धर्म का लक्षण है। इस दश लक्षणयुक्त पक्षपातरहित न्यायाचरण धर्म का सेवन चारो आश्रम वाले करें और इसी वेदोक्त धर्म ही में आप चलना और दूसरों को समझा कर चलाना संन्यासियों का विशेष धर्म है।
इसी प्रकार से धीरे-धीरे सब संगटदोषों को छोड़ हर्ष शोकादि सब द्वन्द्वों से विमुक्त होकर संन्यासी ब्राह्म ही में अवस्थित होता है। संन्यासियों का मुख्य कर्म यही है कि गृहस्यादि आश्रमों को सब प्रकार से व्यवहारों का सत्य निश्चय करा अर्धम व्यवहारों से छुड़ा सब संशयों का छेदन कर सत्य धर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त कराया करें।
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