एक दिन सब गोपियों ने कृष्ण के लिए एक ठाठदार भोजन बनाने का निर्णय लिया। अपने घरों के नित्यप्रति कार्य पूरे करने के उपरान्त उन्होंने लगातार कई घंटे मेहनत कर के अपने प्रिय कृष्ण के लिए उत्तम भोजन तैयार किया। घंटों की मेहनत के बाद उन्होंने बनाए गए भोजन को सुशोभित बर्तनों में परोसा और कृष्ण के पिता नंद राय के घर चल कर गईं।
जब उन्होंने उस घर में प्रवेश किया तो देखा कि सभी अतिथि खाने की मेज के चारों ओर तथा कृष्ण उनके बीच में बैठे थे और माँ यशोदा उनके हाथ धुलवा रही थीं। जैसे ही अतिथियों ने गोपियों और उनके द्वारा लाए गए भोजन को देखा तो उन्हें ग्लानि महसूस होने लगी क्योंकि उन्होंने तो अभी अभी भोजन कर लिया था। सबने सोचा कि अपनी मेहनत को व्यर्थ होते देख कर गोपियों का तो दिल ही टूट जाएगा।
किंतु गोपियों की दृष्टि तो केवल भगवान कृष्ण पर थी और वे उनकी ओर ही देखे जा रहीं थीं। कुछ पलों के पश्चात् उन्होंने अपने बर्तन नीचे रख दिए और कलात्मक रूप से अपने हाथ हिलाते हुए नृत्य करने लगीं। नंद राय, माँ यशोदा, और अन्य सभी अतिथिगण यह देख कर चकित हो गए कि इतनी मेहनत से अपने बनाए हुए भोजन को व्यर्थ होते देख कर भी वो इतनी मस्त कैसे हो सकती थीं? एक मेहमान ने हिम्मत करके गोपियों से उनकी प्रसन्नता का कारण पूछ ही लिया।
गोपियों ने अपने उल्लासपूर्ण नृत्य को रोका और हंसते हुए कहा कि वे तो यह सोच रही थीं कि इतनी मेहनत से बनाए भोजन को ग्रहण करने के उपरांत कृष्ण के चेहरे पर जो तृप्ति का भाव आएगा, वह कितना दिव्य होगा! जब हम यहाँ पहुँची, तो हमारी आँखों ने कृष्ण के चेहरे को देखा और हमें उनके चेहरे पर तृप्ति का वही भाव दिखाई दिया। इस बात का तो कोई महत्त्व ही नहीं कि उन्होंने किसके हाथ का बना भोजन खाया, क्योंकि उनका तो जीवन ही कृष्ण की तृप्ति के लिए है और उनके तृप्त चेहरे को देखना मात्र ही उनके जीवन की सबसे बड़ी खुशी थी।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जब भक्त ईश्वर के चेहरे को तृप्त देखने लगे तो भक्त और ईश्वर में फिर कोई फर्क नहीं रह जाता। ईश्वर 56 भोग के नहीं, बस आस्था, श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के भूखे हैं। उसे ना सवामणि की आवश्यकता है और ना ही मेवे—मिष्ठान की आवश्यकता है। वो केवल भाव का भूखा है। जो उसे भाव से भजता है—वो उसकी का हो जाता है।