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सत्यार्थप्रकाश के अंश—23

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हे अग्रे अर्थात् प्रकाशस्वरूप परमेश्वर आप की कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान् ज्ञानी और योगी लोग करते हैं उसी बुद्धि से युक्त हम को इसी वत्र्तमान समय में आप बुद्धिमान् कीजिये।
आप प्रकाशस्वरूप हैं कृपा कर मुझ में भी प्रकाश स्थापना कीजिये। आप अनन्त पराक्रम युक्त हैं इसलिये मुझ में भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिये। आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये। आप अनन्त सामथ्र्ययुक्त हैं, मुझ को भी पूर्एा सामथ्र्य दीजिये। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं,मुझ को भी वैसा ही किजिये। आप निन्दा,स्तुति और स्वअपराधियों का सहन करने वाले हैं,कृपा से मुझ को भी वैसा ही किजिए।
हे दयानिधे आप की कृपा से जो मेरा मन जागते में दूर-दूर जाता,दिव्यगुणयुक्त रहता हैं, और वही सोते हुए मेरा मन सुषुप्ति को प्राप्त होता व स्वप्र में दूर-दूर जाने के समान व्यवहार करता सब प्रकाशकों का प्रकाशक,एक वह मेरा मन शिवसंकल्प अर्थात् अपने और दूसरे प्राणियों के अर्थ कल्याण का संकल्प करने हारा होवे। किसी को हानि करने की इच्छायुक्त कभी न होवे।
हे सर्वान्तयार्मी जिससे कर्म करनेहारे धैर्ययुक्त विद्वान् लोग यज्ञ और युद्धादि में कर्म करते हैं, जो अपूर्व सामथ्र्ययुक्त,पूजनीय और प्रजा के भीतर रहनेवाला हैं, वह मेरा मन धर्म करने की इच्छायुक्त होकर अर्धम की सर्वथा छोड़ देवे।
जो उत्कृष्ट ज्ञान और दूसरे को चितानेहारा निश्चयात्मकवृत्ति हैं और जो प्रजाओ में भीतर प्रकाशयुक्त और नाशरहित हैं जिसके विना कोई कुछ भी कर्म नहीं कर सकता,वह मेरा मन शुद्ध गुणों की इच्छा करके दुष्ट गुणों सक पृथक् रहैं।
हे जगदीशवर जिससे सब योगी लोग इन सब भूत,भविष्यत्,वत्र्तमान् व्यवहारों को जानते,जो नाशरहित जीवात्मा को परमात्मा के साथ मिलके सब प्रकार त्रिकालज्ञ करता है,जिस में ज्ञान और क्रिया हैं ,पांच ज्ञानेन्द्रिय बुद्धि और आत्मायुक्त रहता हैं,उस योगरूप यज्ञ को जिस से बढ़ाते हैं, वह मेरा मन योग विज्ञानयुक्त होकर अविद्यादि क्लेशों से पृथक् रहैं।
हे परम विद्वन परमेश्वर आप की कृपा से मेरे मन में जैसे रथ के मध्य धुरा में आरा लगे रहते हैं वैसे ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद और जिस में अथर्ववेद भी प्रतिष्ठत होता है और जिस में सर्वज्ञ सर्वव्यापक प्रजा का साक्षी चित्त चेतन विदित होता है वह मेरा मन अविद्या का अभाव कर विद्याप्रिय सदा रहै।
हे सर्वनियन्ता ईश्वर जो मेरा मन रस्सी से घोड़ो के समान अथवा घोड़ो के नियन्ता सारथि के तुल्य मनुष्यों को अत्यन्त इधर-उधर डुलाता है, जो हृदय में प्रतिष्ठत गतिमान् और अत्यन्त वेग वाला हैं,वह सब इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक के धर्मपथ में सदा चलाया करे। ऐसी कृपा मुझ पर कीजिये।
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