यह प्रसंग उस समय का है जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने वाला था। दोनों ओर ही युद्ध की विभीषिका को लेकर चिंता और तनाव व्याप्त था। युधिष्ठिर ज्येष्ठ भ्राता होने के कारण बेहद परेशान थे और इधर से उधर घूम रहे थे। तभी अचानक कृष्ण ने वहां पर प्रवेश किया। कृष्ण ने युधिष्ठिर के चेहरे पर उभरी चिंता की रेखाओं को भांप लिया। वह अपने चिर-परिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए बोले, ‘किस सोच में डूबे हो?’ युधिष्ठिर बोले, ‘ऐसा अनुमान है कि महाभारत का युद्ध एक महायुद्ध होगा। मैं अपने सैनिकों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हूं। इनकी सुरक्षा का कोई उपाय सुझाइए।’
कृष्ण बोले, ‘तुम्हारा युद्ध धर्म बचाने को लेकर है। युद्ध में तो हानि होती ही है। लेकिन हां, युद्ध में अन्याय की जीत कभी नहीं होनी चाहिए। इसलिए यह प्रयत्न करो कि सदाचार, सत्य और न्याय पृथ्वी पर बना रहे।’ इस पर युधिष्ठिर बोले, ‘हे विश्व ज्ञाता! जब आप सब कुछ जानते ही हैं तो फिर विजय का उपाय भी बताइए।’ कृष्ण बोले, ‘आज का दिन बेहद शुभ है। आज श्रावण मास की पूर्णिमा है। तुम आज के दिन अपनी पूरी सेना के हाथों में रक्षा का सूत्र बांध दो। यह रक्षा का सूत्र अवश्य ही अधर्म पर धर्म की जीत कराएगा। पवित्र भावना से बांधे गए रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है। यह मृत्यु तक को मात दे सकता है।’
कृष्ण की बातें सुनकर युधिष्ठिर के चेहरे से तनाव की रेखाएं मिट गई। उन्होंने अपनी संपूर्ण सेना के हाथों में रक्षा का पवित्र सूत्र बांधा। इससे सेना का जोश सातवें आसमान पर जा पहुंचा। इतिहास गवाह है कि महाभारत के इस युद्ध में पांडवों की जीत हुई।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, सच्चे मन से हाथ पर बांधा गया रक्षा सूत्र सदा मानव की रक्षा करता आया है और करता रहेगा। इसलिए सदा अपने गुरुदेव, पुज्यनीय और बहन से रक्षासूत्र बंधवाते रहे।