धर्म

ओशो : क्या है मेरा

हम जिंदगी में जो मकान बनाते हैं-मिट्टी के…पत्थर के… धातुओं के…विभिन्न पदार्थ के… एक दिन पुकार आती है ऊपर से और रेत के किनारे पर सब छोड़ कर चले जाना पड़ता है। फिर उनका कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता। फिर उन्हें साथ भी नहीं ले जाया जा सकता। जाते वक्त, जमीन से विदा होते वक्त हाथ खाली होते हैं।
लेकिन जिन चीजों से भरने में हमने जीवन गंवा दिया, उनमें से एक भी हमारे साथ नहीं होती। और ध्यान रहे, वही है संपत्ति जो मृत्यु के क्षण में भी साथ रहे। वह संपत्ति नहीं है जो मृत्यु के क्षण में छूट जाए।

सिकंदर मरा,तो जिस राजधानी में उसकी अर्थी निकली, हजारों-लाखों लोग उस अर्थी को देखने इकट्ठे हुए थे। लेकिन हर आदमी एक ही सवाल पूछने लगा। सिकंदर के दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। किसी के हाथ अर्थी के बाहर लटके नहीं देखे गए थे।
लोग पूछने लगे, कोई भूल हो गई है ?
लेकिन किसी भिखमंगे की अर्थी होती तो भूल भी हो सकती थी। सिकंदर की अर्थी थी। बड़े-बड़े सम्राट कंधा दे रहे थे। ये हाथ क्यों लटके हुए हैं बाहर ?
फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला, सिकंदर ने खुद ही चाहा था कि मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने पूछा था कि यह क्या पागलपन है ? हाथ बाहर कभी किसी के लटके देखे नहीं गए।
किसलिए चाहते हो कि हाथ बाहर लटके रहें ? तो सिकंदर ने कहा था, मैं चाहता हूं कि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। जिंदगी भर दौड़ कर हाथ भरते हैं और फिर पाते हैं कि हाथ खाली रह गए हैं। जिंदगी भर ये हाथ खाली थे।
सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है। कुछ मिलता नहीं, सिर्फ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। करीब-करीब ऐसे ही जैसे दूर दिखाई पड़ता है कि पृथ्वी जमीन को छू रही है, हम थोड़े आगे बढ़ेंगे तो वह जगह आ जाएगी जहां जमीन आकाश को छूता है।
लेकिन हम जितने आगे बढ़ते हैं उतना ही वह घेरा भी आगे बढ़ता चला जाता है। हम जिंदगी भर चलते रहें, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, वह जगह नहीं आएगी जहां जमीन आकाश को छूती है। वह सिर्फ छूती हुई दिखाई पड़ती है, वह कहीं छूती नहीं।
ठीक ऐसे ही आदमी जिंदगी भर सोचता है:—
यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए। और सब मिल जाएगा एक दिन, ऐसा लगता है आगे, आगे कहीं मिलने की जगह आ जाएगी। दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है। आखिर गिर जाता है, मिलने का वक्त नहीं आता, हाथ खाली ही रह जाते हैं।

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