धर्म

ओशो : सदगुरु आते है

तुम्हारे पड़ोस में जो बैठा हैं,उसकी सुबह करीब है। और तुम अभी आधी रात में हो। यह हो सकता है कि तुम्हारी सुबह आने में अभी जन्मों-जन्मों की देर हो। और इसलिए तो हम एक-दूसरे को समझ नहीं पाते, क्योंकि हमारी समझ के तल अलग-अलग होतें हैं। कोई पहाड़ से बोल रहा है, कोई घाटी में भटक रहा हैं। कोई आंखें खोलकर देख लिया हैं किसी की आंखें सदा से बंद हैं। तो एक-दूसरे को समझना बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्योंकि सब सीढ़ी के अलग-अलग पायदानों पर खड़े हैं।
यह तो चौंक उठा। इसे तो भरोसा नहीं आया। बुद्ध- और उसके द्वार पर आकर खड़े हैं। पहले कभी नहीं आए थे। जब भी उसे जाना था, वह दान देने जाता था। पांच बार वह दान देता था भिक्षुसंघ को। वह जाता था,दान कर आता था।
बुद्ध कभी नहीं आएं थे,पहली बार आए हैं। कैसे भरोसा हो। भरोसा हो तो कैसे भरोसा हो?
अनेक बार सोचा होगा उसने प्राणी में संजोयी होगी यह आशा कि कभी बुद्ध मेरे घर आएं। सोचा होगा कभी आंमत्रित करूं। फिर डरा होगा कि मुझ गरीब ब्राह्मण का आमंत्रण स्वीकार होगा कि नहीं होगा। भय-संकोच में शायद आंमत्रण नहीं दिया होगा। या क्यों कष्ट दूं। क्या प्रयोजन है। जब आना है,मैं आ ही सकता हूं,उन्हें क्यों भटकाऊं। ऐसा सोचकर रूक गया होगा। प्रेम के कारण रूक गया होगा। संकोच के कारण रूक गया होगा। बुद्ध आज अचानक,बिना बुलाए, द्वार पर आकर खड़े हो गए हैं।
जब जरूरत होती है, तब सद्गुरू सदा ही उपलब्ध हो जाता है। सद्गुरू को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती। तुम्हारी पात्रता जब भर जाएगी, जब तुम उस जगह के करीब होओगे, जहां उसके हाथ की जरूरत हैं- वह निश्चित मौजूद हो जाएगा। होना ही चाहिए।

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