हिसार,
पर्यावरण की रक्षा को लेकर देश में आमजन सदा से सर्तक रहे है। देश के इतिहास में 4 ऐसे बड़े आंदोलन हुए है जिन्होंने विश्वभर में पर्यावरण को लेकर भारतीयों के प्रेम को उजागर किया है।
बिश्नोई आंदोलन
1730 में जोधपुर के राजा अभय सिंह ने महल बनवाने के लिए लकड़ियों का इंतजाम करने के लिए अपने सैनिकों को भेजा। महाराज के सैनिक पेड़ काटने के लिए राजस्थान के खेजरी गांव में पहुंचे तो वहां की महिलाएं अपनी जान की परवाह किए बिना पेड़ों को बचाने के लिए आ गईं। विश्नोई समाज के लोग पेड़ों की पूजा करते थे। सबसे पहले अमृता देवी सामने आईं और एक पेड़ से लिपट गईं। उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। उन्हें देखकर उनकी बेटियां भी पेड़ों से लिपट गईं। उनकी भी जान चली गई। यह खबर जब गांव में फैली तो गांव की 300 से ज्यादा महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए पहुंच गईं और अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।
चिपको आंदोलन
यह आंदोलन 1973 में उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले में शुरू हुआ और देखते-देखते पूरे उत्तराखंड में फैल गया। इसकी शुरूआत सुंदरलाल बहूगुणा ने की थी। उन्होंने लोगों को पेड़ों के महत्व के बारे में जागरूक किया जिसके बाद लोगों ने ठेकेदारों द्वारा कटवाए जा रहे पेड़ों को बचाने का प्रण लिया। महिलाओं ने इसमें बढ़चढ़कर भाग लिया और वे पेड़ों से लिपट कर खड़ी हो गईं। आखिरकार तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहूगुणा को हस्तक्षेप करना पड़ा और उन्होंने इसके लिए कमिटी बनाई। कमिटी ने ग्रामीणों के पक्ष में फैसला दिया।
सइलेंट वैली
केरल की साइलेंट वैली लगभग 89 वर्ग किलोमीटर में फैला जंगल है जहां कई खास प्रकार के पेड़-पौधे और फूल पाए जाते हैं। 1980 में सरकार ने कुंतिपुजा नदी के किनारे बिजली बनाने के लिए एक बांध बनाने का प्रस्ताव दिया। इससे लगभग 8.3 वर्ग किलोमीटर जंगल के डूब जाने का खतरा था। तब कई पर्यावरण प्रेमी, एनजीओ और स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। बढ़ते आंदोलन को देखते हुए सरकार को पीछे हटना पड़ा।
अप्पिको आंदोलन
कर्नाटक में हुए अप्पिको आंदोलन की खास बात यह है कि इसका कोई लीडर नहीं था। हालांकि, इसकी शुरूआत पंदुरंग हेगड़े नाम के व्यक्ति ने की थी। यह आंदोलन जंगलों को व्यवसायीकरण से बचाने के लिए था। लोगों ने आंदोलन करके न सिर्फ पेड़ों की कटाई रोकी, बल्कि जहां पेड़ कट चुके थे वहां भी पेड़ लगाए।