धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—253

महाराष्ट्र में संतोबा नाम के एक प्रसिद्ध संत हुए। एक बार वह भ्रमण करते हुए राजणागांव पधारे। जब वह एक घर में भिक्षा मांगने पहुंचे तो गृहस्वामिनी ने भिक्षा देते हुए कहा, ‘महाराज, मेरा पति बहुत झगड़ालू है। रोज मुझसे लड़ता-झगड़ता है और धमकी देता है- मैं संतोबा के समान वैराग्य धारण कर लूंगा। मैं बहुत परेशान हूं, आप ही बताइए मैं क्या करूं?’ संतोबा बोले, ‘यदि वह फिर ऐसी धमकी दे तो उसे कह देना, आप खुशी से संतोबा के पास जाओ। मैं रह लूंगी तुम्हारे बिना।’ दूसरे ही दिन पति किसी बात पर नाराज हो गया और फिर वही बात धमकी दी। पत्नी तो इसी ताक में थी, उसने सहज ही कह दिया, ‘चले जाओ, मैं अपना गुजारा कर लूंगी।’

पति गुस्से में था, सो वह घर से निकल गया और पहुंच गया संतोबा के पास। बोला, ‘महाराज, मुझे भी अपने साथ रख लो।’ बातों ही बातों में संतोबा ने जान लिया कि ये महाशय उसी स्त्री के पति हैं। उन्होंने उसके सारे शरीर पर भभूत लगाई और एक झोली और एक टिन का बर्तन देकर उसे भिक्षा लाने भेज दिया। वह समीप के ही गांव में गया और घर-घर भिक्षा मांगने लगा। उसे देखकर लोग घर का दरवाजा बंद कर लेते। आखिर दो घरों से उसे बासी चावल, रोटी, सब्जी मिली। उसे लेकर वह संतोबा के पास पहुंचा।

संत ने उसे भिक्षा में मिला भोजन खाने को कहा, तो उसने वह भोजन खाने से मना कर दिया। संतोबा स्वयं ही वह भोजन खाने लगे और बोले, ‘ऐसा भोजन तो हम रोज करते हैं। जब तुमने घर का त्याग किया है, तो घर जैसे भोजन का भी त्याग करना पड़ेगा।’ यह सुनकर उस व्यक्ति की आंखें खुल गईं। वह बोला, ‘महाराज, यदि वैराग्य ऐसा ही होता है, तो अपनी झंझटों वाली गृहस्थी ही भली है।’ यह कहकर वह अपने घर लौट गया।

Related posts

स्वामी राजदास : बार-बार जन्म क्यों??

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—445

Jeewan Aadhar Editor Desk

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—19

Jeewan Aadhar Editor Desk