एक बार महर्षि दधीचि की कठोर तपस्या के चलते उनके तप के तेज की चर्चा चारों ओर होने लगी। इस कारण देवराज इंद्र को लगने लगा कि कहीं महर्षि दधीचि उनसे उनका इंद्रासन न छीन लें। अपने इसी डर के चलते देवराज इंद्र ने महर्षि दधीचि की तपस्या भंग करने के लिए एक अप्सरा को भी भेजा, लेकिन वह सफल न हो सकी।
एक बार वृत्रासुर नामक एक राक्षस ने देवलोक पर अधिकार स्थापित कर लिया और इन्द्र सहित सभी देवताओं को देवलोक से निष्कासित कर दिया। इससे परोशान होकर सभी देवगण ब्रह्मा जी के पास गए और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें यह सुझाव दिया कि महर्षि दधीचि ही तुम्हारी सहायता कर सकते हैं। अगर वह अपनी अस्थियों का दान कर दें, तो उनसे एक वज्र बनाकर वृत्रासुर राक्षस वध किया जा सकता है।
ब्रह्मा जी की यह बात सुनने के बाद देवराज इन्द्र को लगा कि मैंने तो महर्षि दधीचि की तपस्या भंग करने की कोशिश की थी, अब वह मेरी सहायता भला क्यों करेंगे। लेकिन देवराज इन्द्र के पास इसके अलावा कोई उपाय नहीं था। इसलिए इंद्रदेव महर्षि दधीचि के पास पहुंचे और हिचकिचाते हुए कहने लगे कि हे ऋषि, तीनों लोकों के कल्याण के लिए हमें आपकी अस्थियों की आवश्यकता है।
इस पर महर्षि ने बड़ी ही विनम्रता के साथ इन्द्रदेव को उत्तर दिया कि यदि मेरी अस्थियों से मानव और देवताओं का भला होता होता है, तो इसे में अपना सौभाग्य समझूंगा। यह सुनने के बाद इन्द्रदेव को आश्चर्य भी हुआ और आत्मग्लानि भी महसूस हुई।
महर्षि ने योग विद्या से अपना शरीर त्याग दिया और अंत में केवल उनकी अस्थियां ही शेष रह गईं। इन्द्रदेव ने उन अस्थियों को श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया और उनकी सहायता से ‘तेजवान’ नामक व्रज बनाया। इस व्रज की सहायता से वृत्रासुर का अंत हुआ और देवताओं को पुनः देवलोक की प्राप्ति हो गई।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, लोककल्याण के लिए महर्षि दधीचि ने अपनी देहत्याग कर अपनी अस्थियां तक दान करके स्वयं को देवताओं में भी पुज्य बना लिया। इसीप्रकार लोक कल्याण के लिए दान करने वाले व्यक्ति भी समाज में मान—सम्मान को अर्जित करते हैं।