एक बार गोमल सेठ अपनी दुकान पर बेठे थे। दोपहर का समय था, इसलिए कोई ग्राहक भी नहीं था तो वो थोड़ा सुस्ताने लगे। इतने में ही एक संत भिक्षुक भिक्षा लेने के लिए दुकान पर आ पहुंचे और सेठ जी को आवाज लगाई कुछ देने के लिए।
सेठजी ने देखा कि इस समय कौन आया है? जब उठकर देखा तो एक संत याचना कर रहा था।
सेठ बड़ा ही दयालु था वह तुरंत उठा और दान देने के लिए कटोरी चावल बोरी में से निकाला और संत के पास आकर उनको चावल दे दिया। संत ने सेठ जी को बहुत बहुत आशीर्वाद और शुभकामनाएं दी।
तब सेठजी ने संत से हाथ जोड़कर बड़े ही विनम्र भाव से कहा कि हे गुरुजन! आपको मेरा प्रणाम। मैं आपसे अपने मन में उठी शंका का समाधान पूछना चाहता हूँ। संत ने कहा की अवश्य पूछो -तब सेठ जी ने कहा कि लोग आपस में लड़ते क्यों है?
संत ने सेठजी के इतना पूछते ही शांत स्वभाव और वाणी में कहा कि ‘सेठ मैं तुम्हारे पास भिक्षा लेने के लिए आया हूँ, तुम्हारे इस प्रकार के मूर्खता पूर्वक प्रश्नों के उत्तर देने नहीं आया हूँ।’संत के मुख से इतना सुनते ही सेठ जी को क्रोध आ गया और मन में सोचने लगे की यह कैसा घमंडी और असभ्य संत है? ये तो बड़ा ही कृतघ्न है। एक तो मैंने इनको दान दिया और ये मेरे को ही इस प्रकार की बात बोल रहे है, इनकी इतनी हिम्मत और ये सोच कर सेठजी को बहुत ही क्रोध आ गया और वो बहुत देर तक उस संत को खरी—खोटी सुनाते रहे।
सेठ जब अपने मन की पूरी भड़ास निकाल चुके तब कुछ शांत हुए। तब संत ने बड़े ही शांत और स्थिर भाव से कहा कि जैसे ही मैंने कुछ बोला आपको क्रोध आ गया और आप क्रोध से भर गए और जोर—जोर से बोलने और चिल्लाने लगे। आपने अपना विवेक खो दिया। यही आपके प्रश्न का उत्तर है कि धैर्य और विवेक के जाते ही क्रोध का अधिपत्य हो जाता है और यहीं से झगड़े की नींव पड़ती है। सेठ जी संत के आगे नतमस्तक हो गए।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, वास्तव में केवल विवेकहीनता ही सभी झगड़े का मूल होता है। यदि सभी लोग विवेकी हो जाये तो अपने क्रोध पर काबू रख सकेंगे या हर परिस्थिति में प्रसन्न रहना सीख जाये तो दुनिया में झगड़े ही कभी न होंगे।