धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 606

किसी नगर में एक व्यक्ति रहता था, नाम था दानचंद। दरअसल, वह इतना कंजूस था कि किसी को एक धेला भी नहीं देता था, इसलिए लोगों ने विनोद में ही उसका नाम दानचंद रख दिया था। एक दिन की बात है, उसकी पत्नी ने उससे कहा, ‘यहां से गंगाजी सिर्फ़ 10 कोस दूर हैं। सारा जीवन तुमने सिर्फ़ रुपया कमाया और बचाया है। कम से कम एक बार गंगा नहा आओ तो तुम्हें भी पुण्य मिले और कुल को भी।’ दानचंद ने कहा, ‘अरी भाग्यवान, सारा पुण्य तो धन में ही है। गंगाजी नहाने से क्या मिलेगा! वहां पंडे लोग मिलेंगे तो उनको पैसा देना पड़ेगा।’

पत्नी बिगड़कर बोली, ‘अरे तुम जाओ तो सही। ज़रा दान-पुण्य कर दोगे तो क्या बिगड़ जाएगा तुम्हारा? यदि आज तुम न गए ताे तुम्हें भोजन भी नहीं मिलेगा। बैठे रहना भूखे।’ अब मरता क्या न करता। दानचंद ने सोचा कि चलो एक बार हो ही आते हैं, नहीं तो श्रीमती जी भी बिगड़ी रहेंगी और भोजन न मिलेगा सो अलग। दानचंद गंगाजी की ओर घर से रवाना हुआ। गंगा घाट पर किसी पंडित को रुपए न देने पड़ जाएं, इसलिए उसने कुछ भी पैसा नहीं लिया और ख़ाली हाथ ही चल पड़ा। वह इतना कंजूस था कि इतनी दूर जाने के लिए भी उसने वाहन न किया, पैदल ही चल पड़ा। बहुत देर बाद वह गंगा किनारे पहुंचा तो मुख्य घाट की ओर न गया। उसे डर था कि वहां स्नान करने के बाद घाट के पंडे लोग दान-दक्षिणा मांग सकते हैं। इसलिए वह सीधे मुर्दा घाट चला गया, जहां पर मृतकों का दाह-संस्कार किया जाता था।

उसने चारों ओर देखभाल कर इत्मीनान कर लिया कि उसके अलावा और कोई व्यक्ति उस घाट पर दूर-दूर तक नहीं है। वह निश्चिंत होकर गंगाजी में नहाने उतर गया। दानचंद की कंजूसी देखकर भगवान को भी हंसी आ गई कि इतना लोभी आदमी नहीं देखा। भगवान ने सोचा कि इसकी परीक्षा लेनी चाहिए। उन्होंने तुरंत पंडे का भेष धारण किया और उसी घाट पर पहुंचे जहां दानचंद नहा रहा था। जैसे ही दानचंद नहाकर आया तुरंत पंडितजी के भेष में भगवान बोले, ‘यजमान की जय हो।’ दानचंद अचानक पंडितजी को देेखकर घबरा गया। बोला, ‘आप कौन हो?’ पंडितजी बोले, ‘संतोषी ब्राह्मण हैं महाराज। इसी घाट पर पड़े रहते हैं। भगवान का भजन करते हैं।’

दानचंद बोला, ‘हद है। मुर्दा घाट को भी नहीं छोड़ा।’ पंडितजी हंसकर बोले, ‘हम तो संतोषी ब्राह्मण हैं। घाट पर तो दूसरे पंडे रहते हैं। आप जैसे यजमान हमारी यहीं पर भोजन व्यवस्था कर देते हैं तो गुज़र-बसर होता रहता है। आपके जैसे यजमान हमारे वर्षभर तक के भोजन की व्यवस्था कर देते हैं तो चिंता नहीं रहती।’ दानचंद झुंझलाकर बोला, ‘पर हम नहीं कर सकते। एक वर्ष क्या एक दिन की भी नहीं कर सकते। अरे एक दिन तो बड़ी दूर की बात है एक समय की भी नहीं कर सकते। जाओ अपना काम देखो।’ पंडितजी हंसकर बोले, ‘कोई ज़बरदस्ती थोड़े है। आपकी जैसी श्रद्धा हो। पर आज कुछ न कुछ तो आपको देना ही पड़ेगा। गंगाजी का स्नान आपने किया है, सारे पाप धुल गए। दान देकर पहला पुण्य कमा लीजिए।’

जब पंडितजी नहीं माने तो दानचंद हारकर बोला, ‘अच्छा ठीक है, पर उधार देंगे।’ पंडितजी बोले, ‘चलो यही ठीक है।’ दानचंद बोला, ‘एक धेला देंगे वह भी उधार।’ उस ज़माने में धेला चलता था। पंडितजी मन ही मन हंसकर बोले, ‘चलो कुछ तो दिया।’ दानचंद बाेला, ‘आप हमारे घर से आकर ले जाना। अभी हमारे पास नहीं है।’ पंडितजी ने सहमति जताई कि ठीक है वे दानचंद के घर से आकर एक धेला दक्षिणा ले लेंगे। दानचंद ने घर की राह पकड़ी। बेचारा पैदल-पैदल घर पहुंचा। घर पहुंचते ही थककर चूर हो गया। वह घर में भीतर सोने ही जा रहा था कि बाहर से आवाज़ आई, ‘यजमान की जय हो।’ दानचंद ने पत्नी से कहा कि देखो बाहर कौन आया है। पत्नी बाहर होकर भीतर आई तो दानचंद से बोली, ‘किसी पंडे से एक धेला देने के लिए कह आए थे क्या?’ दानचंद ने बोला, ‘कहा था, हां क्यों?’ पत्नी बोली, ‘आ गए हैं। बाहर बैठे हैं।’ दानचंद आश्चर्य से बोला, ‘आ गया वो?’ ‘हां।’ दानचंद बोला, ‘कह दो कि हम बीमार हैं। दो-चार दिन बाद आना।’ पत्नी ने पंडितजी को हाल कह सुनाया।

पंडितजी बोले, ‘अरे यजमान बीमार हैं। दान मिले चाहे न मिले, लेकिन हमारे संकल्प में तो वो हमारे यजमान हैं। ऐसे संकट में यजमान को छोड़ना धर्म नहीं है। हम नहीं जा सकते, हम भी यहीं रहेंगे जब तक यजमान स्वस्थ नहीं हो जाते। आप तो भोजन सामग्री दे दो, भोजन हम आप ही बना लेंगे।’ पत्नी ने अंदर आकर दानचंद को यह बात बताई। दानचंद ने माथा पीट लिया कि कैसे पीछा छुड़ाऊं। अपनी पत्नी से बोला कि जाकर कह दो कि दानचंद मर गए। पत्नी बोली, ‘ऐसे कैसे कह दें।’ दानचंद बोला, ‘तुम जाकर कहो तो सही। हम सांस रोककर पड़े रहेंगे। पता ही नहीं चलेगा किसी को।’ इस पर पत्नी ने रोते हुए कहा कि अभी-अभी वो तो चल बसे। पंडितजी बोले, ‘शिव-शिव। क्या मर गए। यह तो बहुत बुरा हुआ। लेकिन यजमान का जब तक अंतिम संस्कार न हो जाए हम कैसे जा सकते हैं। और आप अकेली कहां-कहां किसे ख़बर करेंगी। आप बैठो, मैं सारे गांव में ख़बर देकर आता हूं।’

पत्नी पंडितजी को रोक पाती इससे पहले ही पंडित के रूप में भगवान बिजली की गति से सारे गांव में ख़बर करके आ गए कि दानचंद मर गए। लोग सचमुच इकट्‌ठे हो गए। भगवान को हंसी आई कि ऐसा ज़िद्दी नहीं देखा कि सांस रोककर पड़ा हुआ है। लोगों ने उसे मुर्दा समझकर उठाया और शवयात्रा की तैयारी होने लगी। दानचंद की पत्नी ज़ोर-ज़ाेर से रोने लगी यह कहते हुए कि अरे ये ज़िंदा हैं मरे नहीं हैं। लेकिन गांववाले बोलें कि जाने वाले को कौन रोक सकता है, वह तो गया। यह तो तुम्हारा मोह है जो कह रहा है वह ज़िंदा है। लेकिन पत्नी की किसी ने एक न सुनी। दानचंद को बांध दिया और वह भी सांस रोककर बंध गया।

भगवान को बड़ी हंसी आती रही कि बहुत ज़िद्दी आदमी है। शवयात्रा श्मशान पहुंच गई। वहां दानचंद को जलाने की तैयारी होने लगी, लेकिन तब भी वह सांस रोककर पड़ा रहा कि कहीं पंडितजी को मालूम न चल जाए कि वह ज़िंदा है। भगवान ने सोचा कि यह मर जाएगा लेकिन धेला नहीं देगा। भगवान गांव वालों से बोले कि यजमान के कान में कुछ मंत्र बोलेंगे ताकि इनको मोक्ष मिले।

भगवान ने दानचंद के कान में कहा, ‘आया हूं बैकुण्ठ से तुम हित नाता जोड़, वरदान लेहु कछु मांग…’ जैसे ही पंडितजी ने यह कहा तो दानचंद ने सोचा कि यह तो भगवान है। और ऐसा सोचकर उसने जैसे ही आंखें खोलीं तो पंडितजी को पाया। उन्हें देखते ही उसने वापस आंखें बंद कर लीं। भगवान ने फिर कहा, ‘आया हूं बैकुण्ठ से तुम हित नाता जोड़, वरदान लेहु कछु मांग…।’ दानचंद आख़िरकार बोला, ‘धेला दीजै छोड़।’

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, हम सभी अपने जीवन में दानचंद की तरह ही बने हुए है। भगवान की पूजा—पाठ के लिए एक घड़ी का समय भी शांत चित्त से नहीं दे पाते। पूजा करते समय भी हमारा ध्यान संसारिक कार्यों में उलझा रहता है। जब तक शांत चित्त होकर हम ईश्वर का सिमरन नहीं करेंगे तब तक हमें परमात्मा रुपी अनमोल खजाना कैसे प्राप्त होगा। हमारी हालत ऐसी है कि धेला नहीं देते और धड़ी दे देते हैं। यदि कल्याण के मार्ग पर चलना है कि दैनिक कार्यों में से कुछ समय ईश्वर भक्ति के लिए निकालना होगा।

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