धर्म

ओशो: स्त्री के रहस्य

स्त्री जन्म-जन्म तक अपने प्रेमी की प्रतीक्षा कर सकती है; पुरुष नहीं कर सकता। पुरुष प्रतीक्षा जानता ही नहीं है। पुरुष के मन की जो व्यवस्था है, उसमें प्रतीक्षा नहीं है। उसमें अभी और यहीं, इंसटैंट सब चाहिए। इंसटैंट काफी भी, इंसटैंट सेक्स भी। अभी! इसलिए पुरुष ने विवाह ईजाद किया। क्योंकि विवाह के बिना इंसटैंट सेक्स, अभी, संभव नहीं है। पुरुष प्रतीक्षा बिलकुल नहीं कर सकता। आतुर है, व्यग्र है, तनावग्रस्त है। लेकिन स्त्री प्रतीक्षा कर सकती है, अनंत प्रतीक्षा कर सकती है।
इसलिए जब इस मुल्क में हिंदुओं ने पुरुषों को विधुर रखने की व्यवस्था नहीं की और स्त्रियों को विधवा रखने की व्यवस्था की, तो यह सिर्फ स्त्रियों पर ज्यादती ही नहीं थी, यह स्त्रियों की प्रतीक्षा के तत्व की समझ भी इसमें थी। एक स्त्री अपने प्रेमी के लिए पूरे जन्म, अगले जन्म तक के लिए प्रतीक्षा कर सकती है। यह भरोसा किया जा सकता है। लेकिन पुरुष पर यह भरोसा नहीं किया जा सकता।
इसलिए भारत ने अगर स्त्रियों को विधवा रखने की व्यवस्था दी और पुरुषों को नहीं दी, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि यह व्यवस्था पुरुष के पक्ष में थी। जहां तक मैं समझ पाता हूं, यह पुरुष का बहुत बड़ा अपमान था, यह स्त्री का गहनतम सम्मान था। क्योंकि इस बात की सूचना थी कि हम स्त्री पर भरोसा कर सकते हैं कि वह प्रतीक्षा कर सकती है। लेकिन पुरुष पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। पुरुष पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए विधुर को रखने के लिए आग्रह नहीं रहा। कोई रहना चाहे, वह उसकी मर्जी! लेकिन स्त्री पर आग्रह था।
और आग्रह इसलिए था कि उसकी प्रतीक्षा में ही उसका वह जो स्त्रैण तत्व है, वह ज्यादा प्रकट होगा। उसे जितना अवसर मिले निष्क्रिय प्रतीक्षा का, उसके भीतर की गहराइयां उतनी ही गहन और गहरी हो जाती हैं। और उसके आंतरिक रहस्य मधुर और सुगंधित हो जाते हैं।
एक बहुत हैरानी की बात मैं कभी-कभी पढ़ता रहा हूं। कभी मेरे खयाल में नहीं आती थी कि बात क्या होगी। कैथोलिक प्रीस्ट के सामने लोग अपने पापों की स्वीकृतियां करते हैं, कन्फेशन करते हैं। अनेक कैथोलिक पुरोहितों का यह अनुभव है कि जब स्त्रियां उनके सामने अपने पापों की स्वीकृति करती हैं, तो स्वभावतः वे भी मनुष्य हैं और केवल ट्रेंड प्रीस्ट हैं।
ईसाइयत ने एक दुनिया को बड़े से बड़ी जो बुरी बात दी है, वह यह, प्रशिक्षित पुरोहित दिए। कोई प्रशिक्षित पुरोहित नहीं हो सकता। प्रशिक्षित डाक्टर हो सकते हैं, प्रशिक्षित वकील हो सकते हैं, लेकिन प्रशिक्षित पुरोहित नहीं हो सकता; उसी तरह, जैसे प्रशिक्षित पोएट, कवि नहीं हो सकता। और अगर आप कविता को सिखा दें और ट्रेनिंग दे दें और सर्टिफिकेट दे दें कि यह आदमी ट्रेंड है कविता में, तो वह सिर्फ तुकबंदी करेगा। कविता उससे पैदा नहीं हो सकती। पुरोहित भी जन्मजात क्षमता है, साधना का फल है। उसे कोई प्रशिक्षित नहीं कर सकता। लेकिन ईसाइयत ने प्रशिक्षित किए। ट्रेंड पुरोहित हैं, उनके पास डिग्रियां हैं, उनमें कोई डी.डी. है, डाक्टर ऑफ डिविनिटी है। डाक्टर ऑफ डिविनिटी कोई नहीं होता, क्योंकि सर्टिफिकेट पर जो डिविनिटी तय हो जाएगी, वह डिविनिटी नहीं हो सकती है। वह क्या दिव्यता होगी जो एक स्कूल-सर्टिफिकेट देने से तय हो जाती हो!
तो पुरोहित के पास जब स्त्रियां अपने पापों का कन्फेशन करती हैं, तो यह कन्फेशन बहुत टेंपटिंग हो जाता है। स्वाभाविक! जब कोई स्त्री अपने पाप का स्वीकार करती है, और एकांत में करती है, तो पुरोहित के लिए बड़ी बेचैनी हो जाती है। स्त्री तो हलकी हो जाती है, पुरोहित भारी हो जाता है। लेकिन कैथोलिक पुरोहितों का एक वक्तव्य मुझे सदा हैरान करता था, वह यह कि विधवा स्त्रियां ज्यादा आकर्षक और टेंपटिंग सिद्ध होती हैं। मैं बहुत हैरान था कि यह क्या कारण होगा?
असल में, विधवा अगर सच में विधवा हो, तो उसके सौंदर्य में बहुत बढ़ती हो जाती है। क्योंकि प्रतीक्षा उसके स्त्रैण रहस्य को गहन कर देती है। कुंवारी लड़की में जो रहस्य होता है, वह प्रतीक्षा का है। इसलिए सारी दुनिया में जो समझदार कौमें थीं, उन्होंने तय किया कि कुंवारी लड़की से ही विवाह करना। क्योंकि सच तो यह है कि जो लड़की कुंवारी नहीं है, उससे विवाह करने का मतलब है कि आपको स्त्री के रहस्य को जानने का मौका ही नहीं मिलेगा। वह रहस्य पहले ही खंडित हो चुका। वह स्त्री छिछली हो गई। उसने प्रतीक्षा ही नहीं की है इतनी, जितनी प्रतीक्षा पर वह भीतर का पूरा का पूरा रहस्यमय फूल खिलता है।
इसलिए जिन समाजों ने स्त्री के कुंवारे रहने पर और विवाह पर जोर दिया, उन्होंने पुरुष के कुंवारेपन की बहुत फिक्र नहीं की है। उसका कारण है कि पुरुष के कुंवारेपन या न कुंवारेपन से कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन स्त्री के कुंवारेपन से फर्क पड़ता है। कुंवारी स्त्री में एक सौंदर्य है जो विवाह के बाद उसमें खो जाता है।

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