किसी गांव में एक बहुत ही फूहड़ किस्म का आदमी रहता था। गांव में उसकी कोई इज्जत नहीं करता था। वह हमेशा दुखी रहा करता था। एक दिन एक संत उस गांव में आए। उस फूहड़ व्यक्ति ने संत से प्रार्थना की कि महाराज इस गांव में मेरी कोई इज्जत नहीं करता।
संत ने विचार करके कहा कि आज से तुम चुप रहना सीखो और आवश्यकता पडऩे पर ही कुछ बोलो। उसने संत की बात मान ली और उस दिन से चुप रहने लगा। केवल चुप रहने से ही गांव के लोग उसे समझदार व्यक्ति मानने लगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह अकारण बक-बक नहीं करता था। लोगों को समझ में आ गया कि वह समझदार व्यक्ति हो गया है। अब कभी भी वह बकवास नहीं करता।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, अकारण बोलकर दुख आमंत्रित मत करो, क्योंकि आपको कुछ पता नहीं है कि आपकी किस बात का क्या प्रभाव पड़ सकता है और आपकी किस बात से व्यक्ति को चोट लग सकती है। एक बार जब किसी व्यक्ति को आपकी बातों से चोट लग जाए, तो उसकी मरम्मत आप नहीं कर सकते। कहते हैं शरीर की चोट तो मनुष्य भुला देता है, लेकिन बात की चोट वह कभी नहीं भूल पाता। बात की चोट से जो शत्रुता उत्पन्न होती है, उसे मित्रता में बदलना बहुत कठिन है। बहुत गहरा मित्र भी आपकी बात से घायल होकर आपका शत्रु बन सकता है। इसलिए संत वाणी के संयम और उसके सदुपयोग का उपदेश देते हैं।