एक समय की बात है। अयोध्या के राजकुमार श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र के साथ जंगल में आए। वहां एक भयंकर राक्षसी ताड़का रहती थी। ताड़का की शक्ति इतनी थी कि वह साधु-संतों का यज्ञ भंग कर देती थी, वातावरण को डर और आतंक से भर देती थी। गुरु ने कहा—
“राम! जब तक इस ताड़का का अंत नहीं होगा, तब तक साधना और शांति संभव नहीं।”
राम ने संकोच किया, क्योंकि उनके मन में आया—“क्या स्त्री पर शस्त्र उठाना उचित है?”
तभी गुरु बोले—“राम! यह केवल शरीर नहीं, बल्कि अधर्म और आतंक का प्रतीक है। जो समाज में भय फैलाए, धर्म-मार्ग रोके, उसका नाश करना ही धर्म है।”
राम ने तीर चढ़ाया और ताड़का का अंत कर दिया। उसके बाद जंगल में शांति लौट आई, ऋषियों ने फिर से यज्ञ करना शुरू किया और ज्ञान का प्रवाह चल पड़ा।
आज के समय में “ताड़का” बाहर जंगल में नहीं रहती, बल्कि हमारे भीतर और आसपास के जीवन में रहती है। कभी वह गुस्से के रूप में आती है, कभी लोभ और स्वार्थ के रूप में, कभी नशे और बुरी आदतों के रूप में, तो कभी नकारात्मकता और आलस के रूप में। ये सब मिलकर हमारे भीतर की साधना—यानी आत्मविश्वास, सफलता और शांति—को नष्ट कर देते हैं।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जैसे राम ने ताड़का का वध करके रास्ता साफ किया, वैसे ही हमें अपने जीवन की “आधुनिक ताड़का” का नाश करना होगा।
अगर गुस्सा हमें बिगाड़ रहा है, तो धैर्य का तीर चलाना होगा।
अगर नशा या बुरी आदतें हमें खींच रही हैं, तो संकल्प का धनुष उठाना होगा।
अगर आलस हमें पीछे कर रहा है, तो परिश्रम की शक्ति जगानी होगी।