धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 754

बहुत समय पहले की बात है। एक नगर में एक महान संत का आगमन हुआ। संत के ज्ञान और वाणी की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। नगर में उत्सव जैसा वातावरण बन गया। लोग अपने-अपने तरीके से संत के दर्शन के लिए पहुँचने लगे।

उसी नगर में एक युवक रहता था, जो अपने सुंदर चेहरे और आकर्षक व्यक्तित्व पर अत्यंत गर्व करता था। वह जहाँ भी जाता, लोग उसके रूप-रंग से प्रभावित हो जाते। उसे लगता था कि सम्मान, सफलता और पहचान सब कुछ चेहरे की सुंदरता से ही मिलती है।

जब वह संत के दर्शन के लिए पहुँचा, तो उसने कुछ लोगों को अपने बारे में कहते सुना,
“इतना सुंदर युवक है, जरूर बहुत अच्छा इंसान होगा।”

यह सुनकर उसका अहंकार और बढ़ गया। वह संत के सामने जाकर बोला,
“महाराज, लोग कहते हैं कि जिसकी शक्ल अच्छी हो, उसकी पहचान अपने-आप बन जाती है। क्या यह सत्य नहीं है?”

संत ने युवक को ध्यान से देखा और मंद मुस्कान के साथ कहा, “वत्स, चेहरा तो केवल शरीर का आवरण है, पर मनुष्य की वास्तविक पहचान उसकी वाणी में बसती है।”

युवक को यह उत्तर सरल लगा, पर संत ने उसकी शंका दूर करने के लिए एक उदाहरण देने का निश्चय किया।

संत ने पास बैठे दो व्यक्तियों को बुलाया। पहला व्यक्ति अत्यंत सुंदर, सुसज्जित और आत्मविश्वास से भरा हुआ था। दूसरा व्यक्ति साधारण वस्त्रों में था, उम्र अधिक थी और चेहरा अनुभव की रेखाओं से भरा हुआ।

संत ने पहले व्यक्ति से कुछ प्रश्न पूछे। उसने ऊँचे स्वर, कठोर शब्दों और घमंड भरी वाणी में उत्तर दिए। उसकी बातों में कटुता थी, दूसरों को नीचा दिखाने की भावना थी।

फिर संत ने दूसरे व्यक्ति से वही प्रश्न पूछे। उसने शांत, विनम्र और मधुर वाणी में उत्तर दिए। उसके शब्दों में सच्चाई, करुणा और जीवन का गहरा अनुभव झलक रहा था।

संत ने उपस्थित लोगों से पूछा, “बताओ, इन दोनों में से किसके शब्दों ने तुम्हारे मन को छुआ?”

सबने एक स्वर में कहा, “महाराज, दूसरे व्यक्ति की वाणी ने।”

तब संत ने कहा, “यही सत्य है। सुंदर चेहरा कुछ क्षणों के लिए आकर्षित कर सकता है, लेकिन वाणी मनुष्य के संस्कार, विचार और चरित्र को प्रकट करती है। क्रोध भरी वाणी अच्छे चेहरे को भी कुरूप बना देती है, और मधुर वाणी साधारण चेहरे को भी आदरणीय बना देती है।”

युवक को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने सिर झुकाकर कहा, “महाराज, आज मुझे समझ आया कि मैं अपने चेहरे को सजाने में लगा रहा, पर अपनी वाणी को सँवारना भूल गया।”

संत ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “जो अपनी वाणी को शुद्ध कर लेता है, वह अपने जीवन को भी शुद्ध कर लेता है। क्योंकि वाणी ही कर्म बनती है और कर्म ही भविष्य रचते हैं।”

उस दिन के बाद युवक ने बोलने से पहले सोचने की आदत डाल ली। धीरे-धीरे लोग उसके रूप से नहीं, बल्कि उसके शब्दों से उसे पहचानने लगे।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, मनुष्य की पहचान चेहरे से नहीं, उसकी संपूर्ण पहचान उसकी वाणी से होती है। मधुर, सत्य और संयमित वाणी ही सच्चा आभूषण है।

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