एक बार की बात है। एक गाँव में एक संत रहते थे। वे सादगी, सेवा और सत्य के लिए प्रसिद्ध थे। उनके पास रोज़ लोग आते—कोई सलाह लेने, कोई मन का बोझ हल्का करने।
एक दिन एक युवक संत के पास आया और बोला, “महाराज, लोग बड़े अजीब हैं। कोई मेरे बारे में कुछ अच्छा कहे तो लोग पूछते हैं—सच है या नहीं? लेकिन कोई एक बुरी बात कह दे तो बिना सोचे तुरंत मान लेते हैं। ऐसा क्यों?”
संत मुस्कराए। उन्होंने युवक को पास के बाजार में भेजा और कहा, “जाओ, वहाँ जाकर कहना कि मैंने एक चोर को दान दिया है।”
युवक गया। शाम तक पूरा गाँव चर्चा से भर गया— “देखा! संत भी कैसे हैं… चोरों का साथ देते हैं!”
अगले दिन संत ने युवक से कहा, “अब जाओ और कहना कि संत ने एक घायल कुत्ते का उपचार कराया है।”
युवक ने वैसा ही किया। लोग सुनकर बोले, “हूँ… हो सकता है। कौन जानता है सच है या नहीं..उपचार संत ने करवाया है या किसी और ने।”
युवक हैरान होकर संत के पास लौटा और बोला, “महाराज, बुरी बात पर सबने तुरंत विश्वास कर लिया, और अच्छी बात पर सबने शक किया।”
संत गंभीर स्वर में बोले, “वत्स, यही मनुष्य का स्वभाव है। बुरी बात अहंकार को तृप्त करती है और अच्छी बात आत्मनिरीक्षण की माँग करती है। इसलिए लोग अच्छाई पर प्रश्न करते हैं और बुराई को बिना जाँच स्वीकार कर लेते हैं।”
फिर संत ने आगे कहा, “याद रखना—जो तुम्हें समझते हैं, उन्हें किसी सफ़ाई की ज़रूरत नहीं होती। और जो समझना नहीं चाहते, उन्हें कोई सफ़ाई संतुष्ट नहीं कर सकती।”
युवक नतमस्तक हो गया। उस दिन उसे समझ आ गया कि लोगों की सोच नहीं, बल्कि अपना चरित्र ही सबसे बड़ा उत्तर है।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, दुनिया आपकी अच्छाई पर शक करे तो विचलित मत होइए। समय आपकी सच्चाई को स्वयं प्रमाणित कर देगा।








