एक छोटे से कस्बे में रामनाथ नाम का व्यक्ति रहता था। वह ज्यादा धनवान नहीं था, लेकिन उसका दिल बहुत बड़ा था। कस्बे में जब भी किसी को किसी काम की ज़रूरत पड़ती—काग़ज़ लिखवाना हो, बैंक जाना हो, अस्पताल में किसी की सिफ़ारिश करनी हो—सबसे पहले लोग रामनाथ को ही याद करते।
रामनाथ सबकी मदद बिना किसी स्वार्थ के करता। कोई उसे “भाई” कहता, कोई “भैया”, कोई “चाचा”। उसके घर पर दिन भर लोगों का आना-जाना लगा रहता। उसे लगता था कि यही उसका सम्मान है, यही उसकी पहचान।
समय बदला।
कस्बे में नए दफ़्तर खुल गए, ऑनलाइन काम शुरू हो गया, लोगों के अपने-अपने संपर्क बन गए। अब किसी को रामनाथ की उतनी ज़रूरत नहीं रही। जो लोग रोज़ उसके दरवाज़े पर आते थे, अब रास्ते में मिलकर भी नज़रें चुरा लेते।
एक दिन रामनाथ बीमार पड़ा। कई दिन बीत गए, लेकिन कोई हाल पूछने नहीं आया। वह बिस्तर पर लेटा सोचता रहा—“जब सबको मेरी ज़रूरत थी, तब मैं सबसे ख़ास था… और आज जब मुझे किसी की ज़रूरत है, तब मैं किसी को याद नहीं।”
कुछ दिनों बाद वह ठीक हुआ और बाहर निकला। उसने देखा—कस्बा वही है, लोग वही हैं, बस उनके व्यवहार बदल गए हैं। तभी उसकी मुलाक़ात बूढ़े संत से हुई। रामनाथ ने मन का दर्द कह दिया।
संत मुस्कुराए और बोले— “बेटा, लोग तुम्हें इसलिए नहीं छोड़ते कि तुम बुरे हो,वे इसलिए दूर हो जाते हैं क्योंकि उनकी ज़रूरत पूरी हो चुकी होती है। जो रिश्ता ज़रूरत पर टिका हो, वह ज़रूरत के साथ ही खत्म हो जाता है।”
रामनाथ ने पूछा, “तो फिर इंसान क्या करे?”
संत ने उत्तर दिया— “इतना ही दो, जितना तुम्हारे आत्मसम्मान को न तोड़े। लोगों के लिए सहारा बनो, लेकिन अपनी पहचान मत खोओ। जो तुम्हें सिर्फ़ ज़रूरत में याद करे, उसे दिल में नहीं— बस,कर्तव्य का स्थान दो।”
उस दिन रामनाथ की आँखें खुल गईं। अब वह मदद तो करता था, लेकिन आँख मूंदकर नहीं। सम्मान वहाँ रखता, जहाँ उसकी क़दर होती।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, ज़रूरत खत्म होने पर लोग बदल जाते हैं—यह कड़वी सच्चाई है। इसलिए दूसरों के लिए सब कुछ बनते-बनते,ख़ुद के लिए कुछ बचा कर रखना भी ज़रूरी है।








