एक शांत गाँव था—नदी के किनारे बसा हुआ, जहाँ मिट्टी की खुशबू और सरलता हर घर की पहचान थी। उसी गाँव में रहता था बलबीर, जो बहुत गरीब था। खाने को रोटी मुश्किल से मिलती थी, पहनने को दो जोड़ी कपड़े भी पूरे साल नहीं टिकते थे।
लेकिन एक चीज़ थी जो कोई उससे छीन नहीं सकता था—सीखने की उसकी लगन।
एक दिन उसकी झोपड़ी में चोर घुस आया। उसने टोकरी में रखे दो बर्तन, पुरानी चादर और अनाज की छोटी पोटली उठाई और भागने ही वाला था कि उसे दीवार पर टंगे पन्नों पर नज़र पड़ी—कुछ कटे-फटे कागज़, जिन पर हाथ से लिखी हुई बातें थीं।
वह बोला, “यह भी ले चलूँ, शायद कुछ बिक जाए।”
बलबीर जाग गया और बोला, “भाई, वो ले जाओ… पर यह मत ले जाना। यह मेरा सबसे कीमती खजाना है।”
चोर हँस पड़ा— “इस कागज़ की क्या कीमत? इसे कौन खरीदेगा?”
बलबीर मुस्कुराया, “इन कागज़ों में लिखी है मेरी विद्या—ये मुझे दुनिया को समझना, रास्ते चुनना और जीवन जीना सिखाती है। रोटी, चादर, बर्तन कोई भी ले जाए, पर विद्या को कोई चुरा नहीं सकता।”
चोर पहली बार किसी गरीब को इतना धनी देख रहा था—धन से नहीं, ज्ञान से। उसका मन बदल गया। वह सब वापस रखकर बोला, “आज मैंने पहली बार समझा—सचमुच का धनी कौन है।”
समय बीतता गया। उन्हीं कागज़ों पर लिखे छोटे-छोटे विचार, सूत्र और सीखें ही बलबीर की ताकत बन गए। वह गाँव के बच्चों को पढ़ाने लगा, धीरे-धीरे लोग दूर-दूर से आने लगे।
कुछ ही वर्षों में वही बलबीर, जिसे एक वक्त दो वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं थी, पूरे क्षेत्र का सबसे सम्मानित शिक्षक बन गया।
दरअसल, “बलबीर गरीब नहीं था, बस बाकी दुनिया को देर से पता चला कि उसके पास कौन-सा खजाना था।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, विद्या अमूल्य है — यह किसी से खरीदी नहीं जाती, मेहनत से अर्जित होती है। विद्या सुरक्षित है — इसे कोई चुरा नहीं सकता, खो नहीं सकता, नष्ट नहीं कर सकता। विद्या शक्तिशाली है — यही वह शक्ति है जो इंसान को अज्ञान से ज्ञान की ओर और संघर्ष से सफलता की ओर ले जाती है। सच्चा धन वह है जिसे आप जहाँ भी जाएँ, अपने साथ ले जा सकें—और वह है विद्या।








