प्राचीन समय की बात है। एक प्रसिद्ध संत नगर-नगर भ्रमण करते हुए लोगों को करुणा और सेवा का मार्ग दिखाते थे। एक दिन वे एक सूखे और सुनसान रास्ते से गुजर रहे थे। सूरज सिर पर था, रास्ता कठिन था और दूर-दूर तक कोई छाया नहीं थी।
उसी रास्ते पर उन्होंने देखा—एक गरीब किसान टूटी चप्पलों में, पीठ पर भारी गठरी लादे, बार-बार रुककर साँस ले रहा था। उसके चेहरे पर थकान ही नहीं, निराशा भी साफ झलक रही थी। कई लोग उससे आगे निकल चुके थे, पर किसी ने यह पूछना जरूरी नहीं समझा कि वह ठीक है या नहीं।
संत ठहर गए। उन्होंने किसान से पूछा, “भाई, क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकता हूँ?”
किसान ने संकोच से कहा, “महाराज, जीवन भर दूसरों का बोझ उठाया है, आज अपना बोझ उठाने की ताकत भी नहीं बची। पर आप क्यों कष्ट करेंगे?”
संत ने गठरी उठाते हुए कहा, “जब कोई थक जाए, तो उसका बोझ उठाना कष्ट नहीं, कर्तव्य बन जाता है।”
वे दोनों साथ-साथ चलने लगे। थोड़ी दूर जाने पर किसान की चाल में स्थिरता आ गई। उसने धीमे स्वर में कहा, “महाराज, बोझ तो आधा हुआ, पर मन को जो सहारा मिला, वह अनमोल है।”
संत मुस्कराए और बोले— “दुख का भार सामान से नहीं, उपेक्षा से बढ़ता है। और करुणा से ही वह हल्का होता है।”
जब वे गाँव के पास पहुँचे, संत ने किसान की मदद से अन्य ग्रामीणों को भी बुलाया और कहा— “याद रखो, हर व्यक्ति अपनी आँखों में कोई न कोई पीड़ा छिपाए चलता है।
यदि तुम उसकी मदद नहीं कर सकते, तो कम से कम उसे अकेला मत महसूस होने दो।”
गाँव वालों ने उस दिन एक गहरा सत्य समझा— धर्म पूजा में नहीं, दिखावे में नहीं, बल्कि उस क्षण में है। जब किसी को हमारी मदद की ज़रूरत हो प्राचीन समय की बात है। एक प्रसिद्ध संत नगर-नगर भ्रमण करते हुए लोगों को करुणा और सेवा का मार्ग दिखाते थे। एक दिन वे एक सूखे और सुनसान रास्ते से गुजर रहे थे। सूरज सिर पर था, रास्ता कठिन था और दूर-दूर तक कोई छाया नहीं थी।
उसी रास्ते पर उन्होंने देखा—एक गरीब किसान टूटी चप्पलों में, पीठ पर भारी गठरी लादे, बार-बार रुककर साँस ले रहा था। उसके चेहरे पर थकान ही नहीं, निराशा भी साफ झलक रही थी। कई लोग उससे आगे निकल चुके थे, पर किसी ने यह पूछना जरूरी नहीं समझा कि वह ठीक है या नहीं।
संत ठहर गए। उन्होंने किसान से पूछा, “भाई, क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकता हूँ?”
किसान ने संकोच से कहा, “महाराज, जीवन भर दूसरों का बोझ उठाया है, आज अपना बोझ उठाने की ताकत भी नहीं बची। पर आप क्यों कष्ट करेंगे?”
संत ने गठरी उठाते हुए कहा, “जब कोई थक जाए, तो उसका बोझ उठाना कष्ट नहीं, कर्तव्य बन जाता है।”
वे दोनों साथ-साथ चलने लगे। थोड़ी दूर जाने पर किसान की चाल में स्थिरता आ गई। उसने धीमे स्वर में कहा, “महाराज, बोझ तो आधा हुआ, पर मन को जो सहारा मिला, वह अनमोल है।”
संत मुस्कराए और बोले— “दुख का भार सामान से नहीं, उपेक्षा से बढ़ता है। और करुणा से ही वह हल्का होता है।”
जब वे गाँव के पास पहुँचे, संत ने किसान की मदद से अन्य ग्रामीणों को भी बुलाया और कहा—
“याद रखो, हर व्यक्ति अपनी आँखों में कोई न कोई पीड़ा छिपाए चलता है। यदि तुम उसकी मदद नहीं कर सकते, तो कम से कम उसे अकेला मत महसूस होने दो।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, धर्म पूजा में नहीं, दिखावे में नहीं, बल्कि उस क्षण में है — जब किसी को हमारी मदद की ज़रूरत हो और हम मदद के लिए आगे बढ़कर आएं।








