एक प्राचीन समय की बात है। हिमालय की शांत घाटियों में एक वृद्ध संत रहते थे। उनके पास अद्भुत ज्ञान था, पर उससे भी अधिक अद्भुत था उनका निर्मल हृदय। लोग दूर–दूर से उनके पास समाधान पाने आते, लेकिन संत का एक ही नियम था — “पहले अपने भीतर श्रेष्ठता और पवित्रता को जगाओ, तभी जीवन बदलता है।”
एक दिन एक युवा उनके पास आया। वह बेचैन था, क्रोधित था और जीवन से असंतुष्ट भी। उसने कहा— “गुरुदेव, मैं जो भी करता हूँ, मेरे भीतर गुस्सा, स्वार्थ और संदेह उठते रहते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि मैं श्रेष्ठ कैसे बनूँ?”
संत मुस्कुराए और उसे अपने साथ आश्रम के पीछे ले गए, जहाँ एक पुराना कुआँ था।
संत ने कहा: “इस कुएँ में झाँककर देखो।”
युवक ने देखा तो पानी गंदला था, उसकी अपनी ही धुंधली परछाईं दिख रही थी।
संत बोले— “अब इसे एक घड़े से भर दो।”
जैसे ही युवक ने साफ पानी डाला, गंदगी ऊपर आकर बाहर बहने लगी और कुछ ही देर में कुएँ का पानी एकदम साफ दिखने लगा।
युवक आश्चर्य से बोला— “गुरुदेव! पानी तो एकदम साफ हो गया!”
संत ने उसके कंधे पर हाथ रखा— “बेटा, यही तुम्हारा मन है। मन की गंदगी को निकालने के लिए लड़ने की जरूरत नहीं होती। बस उसमें रोज़ थोड़ा-सा पवित्र पानी— अच्छे विचार, शुभ कर्म, सच्ची प्रार्थना और सेवा— डालते रहो।
धीरे–धीरे भीतर की सारी अशुद्धियाँ खुद ही बाहर निकल जाएँगी।”
संत बोले— “श्रेष्ठता बाहर नहीं मिलती। पवित्रता किसी और का दिया हुआ उपहार नहीं। ये दोनों जागती हैं— जब तुम अपने सोचने, बोलने और करने में सच्चाई और दया को जगह देते हो।”
युवक की आंखें नम हो गईं। उसे लगा मानो वर्षों से पकड़कर रखी चिंता और क्रोध आज बह गए हों। वह बोला— “गुरुदेव, मैं अब रोज़ अपने मन के कुएँ में पवित्रता का जल डालूँगा।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, “तभी जीवन में श्रेष्ठता स्वतः खिल उठेगी। जैसे सूर्य उगता है तो अंधकार भाग जाता है,वैसे ही जब भीतर पवित्रता जागती है, भाग्य भी उजाला बनकर सामने आ जाता है।”








