एक बार एक युवा साधु पर्वतों के बीच बसे आश्रम में पहुँचा। उसका एक ही प्रश्न था— “गुरुदेव, मैं बहुत प्रयास करता हूँ, पर मेरी मंज़िल मुझसे दूर क्यों है?”
संत मुस्कुराए और उसे अपने साथ नदी तट पर ले गए। वहाँ पहुँचकर संत ने कहा, “पुत्र, नदी पार करनी है, चलो प्रयास करो।”
युवक पानी में उतरा, दो–चार कदम आगे गया, फिर ठंड और तेज़ बहाव देखकर लौट आया।
संत चुपचाप देखते रहे। कुछ देर बाद बोले— “अब फिर कोशिश करो।” युवक ने फिर प्रयास किया, पर आधे रास्ते से वापस लौट आया।
संत ने तीसरी बार कहा— “फिर प्रयास करो।”
अब युवक झुंझला गया— “गुरुदेव! मैं पूरा दम लगाकर कोशिश कर रहा हूँ, पर पार नहीं कर पा रहा हूँ।”
संत ने धीरे से कहा— “तुम दम तो लगा रहे हो, पर समर्पण नहीं।”
युवक चौंक गया— “समर्पण? वह कैसे?”
संत बोले— “जिस लक्ष्य को पाने की आग भीतर जलती है, उसके सामने ठंडा पानी, तेज़ बहाव, थकान—कुछ भी बाधा नहीं बनते। जब मन शंका से भरा हो, जब रास्ता मुश्किल लगे, जब लौट आने के सौ बहाने मन में उठें— तब भी जो आगे बढ़ जाए, वही समर्पित है।”
संत ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा— “पुत्र, जो अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित नहीं होता, उसे मंज़िल कभी नहीं मिलती। रास्ते वही जीतते हैं, जो आधे में लौटते नहीं; और सपने वही सच होते हैं, जिनके पीछे हम पूरी निष्ठा से खड़े होते हैं।”
युवक की आँखों में नई रोशनी जाग उठी। उसने बिना रुके, बिना डरे नदी पार की— और समझ गया कि मंज़िल तक पहुँचने का असली मार्ग कोशिश नहीं, बल्कि समर्पण है।








