धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—499

उन्नीसवीं शताब्दी का एक प्रसंग है। पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीर सिंह नामक गाँव में एक मां अपने पुत्र के साथ रहती थी। माँ का रहन-सहन अत्यंत सादा था और विचार अति उच्च।अपने पुत्र को वह सदा सुसंस्कारों की शिक्षा देती थी। पुत्र भी मां का आज्ञाकारी था। माँ बहुत संघर्ष कर पुत्र का पालन-पोषण कर रही थी।

पुत्र अपनी माँ के कष्टों को देखता- समझता था और इसी वजह से उसके मन में यह भावना थी कि बड़ा होकर अपनी माँ को सभी प्रकार के सुख दूँ। एक दिन पुत्र ने माँ से कहा – मेरी बहुत इच्छा है कि तुम्हारे लिए कुछ गहने बनबाऊं, तुम्हारे पास एक भी गहना नहीं है।

यह सुनकर माँ बोली – बेटा ! मुझे बहुत दिनों से तीन प्रकार के गहनों की इच्छा है। पुत्र ने पूछा – वे कौन से गहने हैं ? माँ ने उत्तर दिया – बेटा इस गांव में स्कूल नहीं है। तुम एक अच्छा स्कूल बनवाना। एक दवाखाना खुलवाना। गरीब और अनाथ बच्चों के रहने और भोजन की व्यवस्था करवाना। यही मेरे लिए गहनों के समान है।

मां की बात सुनकर पुत्र रो पड़ा। वह पुत्र था पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर और माँ थी भगवती देवी। वीर सिंह गाँव में इस पुत्र द्वारा स्थापित किया हुआ भगवती विद्यालय आज भी उन अमूल्य गहनों की कथा सुना रहा है।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, स्वयं की सज्जा से अधिक समाज को संवारने की कामना ही मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है और ऐसी मनुष्यता से भरा समाज एक सुसंस्कृत राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करता है।

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