धर्म

ओशो : जीवन का प्रेम

जीवन का प्रेम सीखो। जीवन का आह्लान सीखो। जीवन के आह्लान से ही तुम एक-एक कदम परमात्मा के आह्लान में प्रवेश करोगे। कविता का रस लो तो कविता ही तुम्हें कवि तक पहुंचा सकती है। नृत्य में डूबो। उसी में डुबकी लगाते-लगाते एक दिन नर्तक का साथ हो जाएगा।
इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम शरीर को सुखाओ, कि धूप में नग्र खड़े हो जाओ, कि सर्दियों में जाकर हिमालय की ऊंची गुफाओं में बैठों। तुम्हें मूढ़ताएं करनी हो तों किसी सर्कस में भरती हो जाओ, इतनी दूर और इतने लम्बे और इतने उपद्रव क्यों मचाने? तुम्हें उपवास करना हो तो इसको धर्म का चोगा मत पहनाओ। तुम सिर्फ आत्मघाती हो। तुम्हारे भीतर आत्महत्या की वृत्ति है, और कुछ भी नहीं। इसको अच्छे शब्दों के जाल में मत छिपओ।
अब तुमने पूछा: यह बताने की कृपा करें कि उपलब्ध होने के बाद भोजन लेना भी शरीर का मोह है क्या?
उपलब्ध होने के बाद न कोई शरीर है, न कोई आत्मा है। उपलब्ध होने के बाद सत्रष्टा और सृष्टि एक हैं, आत्मा और शरीर एक हैं। उपलब्ध होने के बाद एक ही बचता है दो नहीं बचते। उपलब्ध होने के बाद आदमी सोचकर नहीं चलता कि मैं क्या कंरू और क्यां न करूं,आज उपवास कंरू कि आज भोजन लूं। उपलब्ध होने के बाद सब सहज स्वाभाविक होता है। जिस दिन भूख लगती हैं, भोजन लेता है, जिस दिन भूख नहीं लगती , उस दिन भोजन नहीं लेता। इसमें कृत्य नहीं होता- सहज, स्व-स्फूर्त।
तुम्हारी हालात बड़ी अजीब है। भूख नहीं लगी और भोजन लेते हो, और भूख लगी हैं और उपवास करते हो। तुम पागल हो। तुम प्रकृति को मौका दोगे कभी कि नहीं दोगे? तुम अकड़े क्यों खड़े हो? पेट भर गया है और तुम खाए जा रहे हो। यह भी अनाचार है, व्यभिचार है, क्योंकि बालात्कार है शरीर के साथ। और आज भूख लगी है, मगर तुम उपवास किए बैठे हो, कयोंकि पर्युषण-व्रत चल रहे हैं। या आज कोई धार्मिक दिन हैं, उपवास का दिन आ गया । या तुम प्राकृतिक चिकित्सकों के चक्कर में पड़ कर।
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Jeewan Aadhar Editor Desk