धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश—03

अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है वैसे प्राण को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे। जब बाहर निकालना चाहे तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रक्खे तब तक प्राण बाहर रहता है। इसी प्रकार प्राएा बाहर अधिक ठहरता सकता है। जब गभराहट हो तब धीरे-धीरे भीतर वायू को ले के फिर भी वैसे ही करता जाय जितना सामथ्र्य और इच्छा हो और मन में इस प्रकार का जाप करता जाय इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
एक बाह्राविषय अर्थात् बाहर ही अधिक रोकना। दूसरा आभ्यन्तर अर्थात् भीतर जितना प्राएा रोका जाय उतना राके के। तीसरा, स्तभवृति अर्थात् एक ही वार जहां का तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना। चौथा ब्रहा्रभ्यतराक्षेपी अर्थात् जब प्राण भीतर से निकलने लगे तब उससे विरूद्ध उस को न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण का धक्का देकर रोकता जाय। नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
ऐसे एक दूसरे के विरूद्ध क्रिया करें तो दोनो गति रूक कर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियाँ भी स्वाधीन होते हैं। बल पुरूषार्थ बढ़ कर बुद्धि तीव्र सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहूत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इस से मनुष्य शरीर में वीय्र्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। भोजन,छादन, बैठने, उठने, बोलने, चालने,बड़े छोअे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें।
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