धर्म

स्वामी राजदास : भक्ति में भावना की प्रधानता

चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथ पुरी से दक्षिण की यात्रा पर जा रहे थे तो उन्होंने एक सरोवर के किनारे कोई ब्राह्मण गीता पाठ करता हुआ देखा वह संस्कृत नहीं जानता था और श्लोक अशुद्ध बोलता था। चैतन्य महाप्रभु वहाँ ठहर गये कि उसकी अशुद्धि के लिये टोके। पर देखा कि भक्ति में विह्वल होने से उसकी आँखों से अश्रु बह रहे हैं। जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
चैतन्य महाप्रभु ने आश्चर्य से पूछा-आप संस्कृत तो जानते नहीं, फिर श्लोकों का अर्थ क्या समझ में आता होगा और बिना अर्थ जाने आप इतने भाव विभोर कैसे हो पाते है। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया आपको यह कथन सर्वथा सत्य है। कि मैं न तो संस्कृत जानता हूँ और न श्लोकों का अर्थ समझता हूँ। फिर भी जब मैं पाठ करता हूँ तो लगता है मानों कुरुक्षेत्र में खड़े हुये भगवान अमृतमय वाणी बोल रहे हैं और मैं उस वाणी को दुहरा रहा है। इस भावना से मेरा आत्म आनन्द विभोर हो जाता है। जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।

चैतन्य महाप्रभु उस भक्त के चरणों पर गिर पड़े और उनने कहा तुम हजार विद्वानों से बढ़कर हो, तुम्हारा गीता पाठ धन्य है। नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
भक्ति में भावना ही प्रधान हैं, कर्मकाण्ड तो उसका कलेवर मात्र हैं। जिसकी भावना श्रेष्ठ है उसका कर्मकाण्ड अशुद्ध होने पर भी वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। केवल भावना हीन व्यक्ति शुद्ध कर्मकाण्ड होने पर भी कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।
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